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________________ लाढदेश करपात्रे Pil ते लुचियपुव्वाणि संमूणि उटुंभिय विरूवरूवाइं परिसहाई दाऊणं कायं लंचिंसु, भगवतो सशब्दायें ॥३१३॥ अहवा पंसुणा उवकिरिंसु उच्छालिय णिहणिंसु अदुवा आसणाओ खलइंसु, विहरणम् तहवि पणयासे भयवं वोसटकाए अपडिन्ने दुक्खं सहीअ। एवं तत्थ से संवुडे ATM महावीरे फरसाइं परिसहोवसग्गाइं पडिसेवमाणे संगामसीसे सुरोव्व अयले रीइत्था। एसविही मइमया माहणेण अपडिन्नेण भगवया ‘एवं सव्वेऽवि रीयंतु' | त्ति कटु बहुसो अणुक्तो॥५३॥ शब्दार्थ-[तओ भगवं पुणो अवि चिंतेइ] तत्पश्चात् भगवानने पुनः विचार किया [बहुयं कम्मं मम निज्जरेयव्यं अस्थि अओ अनारियबहुलं लाढदेसं वच्चामि] मुझे mil बहुत से कर्मों की निर्जरा करनी है, अतः अनार्य बहुल लाढ देश में जाना चाहिये तत्थ हीलणनिंदणाइहिं बहुअं कम्मं निजरिस्सई' त्ति कटु लाढदेशं पविसीअ] वहां १३॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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