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________________ कल्पसूत्रे समभाव: .. हुए, अतएव त्रास से वर्जित रहे या 'अत्तत्थ' अर्थात् आत्मस्थ ही बने रहे, उद्वेगहीन उपकारापसशन्दार्थे कारविषये * रहे, क्षोभहीन रहे, विस्मय हीन रहे । इन उपसर्गों से उत्पन्न हुई ज्वलंत, महान् , प्रचुर, ॥२८६॥ भगवतः | भयंकर, उग्र, कठोर, गाढी, एवं दुस्सह वेदना को समाधान से सहन किया उन्होंने न किसी को प्रिय, न किसी को द्वेष्य-द्वेष का पात्र-समझा । अपकारी और उपकारी पर समान बुद्धि रखी । इस वेदना को भगवान् ने सम्यक् प्रकार से निर्भय भाव से सहन किया, क्रोध भाव से क्षमा किया। दीनता न लाकर तितिक्षा की, निश्चल रहकर । अध्यास किया। मन से भी संगम देव का अनिष्ट नहीं सोचा, बल्कि मौन धारण । करके धर्मध्यान में मग्न ही रहे । इस प्रकार जनपद में विचरते हुए भगवान के पिछे I -पिछे लगकर संगमदेवने छह महीनों तक उपसर्ग किया। परन्तु भगवान् वज्रऋष भनाराचसंहनन वाले होने से उनकी प्राणहानि नहीं हुई । इस प्रकार जनपद में विचरते हुए भगवान् वीर स्वामी एक मास अधिक एक वर्ष तक, अर्थात् तेरह मास तक ॥२८६।।
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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