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चण्डको शिकस्य भगवदुपरिविषप्रयोगः चण्डकौशिकप्रति बोधश्च
कल्पसूत्रे निकलकर कायोत्सर्ग में स्थित प्रभु को देखकर वह विचार करने लगा-यह मृत्यु के - सभन्दायें । भय से रहित मनुष्य कैसा हैं जो मेरे बिल के समीप खड़ा है ? यह ढूंठ के समान H२६१॥ अडिंग रूप से खडा हुआ है । यह भले खड़ा है, परन्तु इसको अभी-अभी विष के
उग्र तेज से राख का ढेर कर देता हूं। इस प्रकार विचार कर चण्डकौशिक रोषवश I घमघमाट करने लगा। एकदम कुपित हो गया। क्रोध से जल उठा । विषरूपी अग्नि को निकालनेलगा। भयानक फण फैलाकर, नेत्र फाड़कर और सूर्य की ओर देखकर भगवान् की तरफ देखने लगा। किन्तु विष भरे नेत्रों से देखने पर भी प्रभु भस्म न हुए, जैसे दूसरे प्राणी नष्ट हो जाते हैं । इसी प्रकार उसने दूसरी बार भी देखा और तीसरी बार भी देखा। फिर भी वीर भगवान् भस्म न हुए। तब उससर्प ने पैर के अंगूठे में काट खाया । काट कर उसने सोचा-'यह कहीं मेरे शरीर पर न गिर पडे' अतएव वह दूर तक सरक गया । मगर अंगूठे में डसने पर भी भगवान् नहीं गिरे । यही नहीं,
॥२६१॥