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नन्दि
कल्पसूत्रे सचन्दायें ॥१८५॥
वर्णनम्
शब्दार्थ-[तएणं समणे भगवं महावीरे इमेयारूवे अभिग्गहं अभिगिण्हित्ता] | MAA प्रभुविरहे तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार के इस अभिग्रह को ग्रहण करके [वोसट्ट
वर्धनादी काए चत्तदेहे मुहुत्तसेसे दिवसे कुम्मारग्गामं पट्ठिए] शरीर की शुश्रूषा और ममता का | विलापIn त्याग किये हुए एक मुहूर्त दिन शेष रहने पर कुर्मारग्राम की ओर विहार किया। [तएणं
सिरि वद्धमाणसामी जाव नयणपहगामी आसी ताव] उसके बाद जब तक श्री वर्धमान । स्वामी नयनपथगामी थे-दिखाई देते थे तब तक [णंदिवद्धणपमुहा उम्मुहा जणा णियणियभोयणपुडेहिं पहुदरिसणामयं पिबमाणा पहरिसमाणा आसी] नन्दिवर्द्धन आदि सव जन अपने अपने नयन पुटों से प्रभुदर्शन का अमृत-पान करते हुए हर्षित रहे, [अहय पहू जहा तहा दिहिसरणिओ विप्पकिट्ठो जाओ तहा तहा दारिदाणं विव सव्वेसिं
सोकरिसहरिसो पणठुमारभीअ] किन्तु प्रभु ज्यों ज्यों नजरों से ओझल होते गये त्योंNS त्यों दरिद्रों के समान सबका उत्कर्षहर्ष समाप्त होने लगा [गिम्हकालम्मि सरोवराणं
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