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________________ ५६० विपाकश्रुते पुणो' पुनः पुनः ‘मंजुलप्पमणिए' मञ्जुलप्रभणितान्-'मा-मा' इति श्रवणरमणीयभाषितान् ददति मातृप्रभृतिश्रवणाय वितरन्ति, तादृशान् शब्दान् कुर्वन्ति, ता मातरो धन्या इति भावः । किन्तु 'अहणं' अह खलु 'अधण्णा' अधन्या, 'अपुग्णा' अपुण्या, 'अकयपुण्णा' अकृतपुण्याऽस्मि यतः 'एत्तो' एतेषुब्दारकाणां वा दारिकाणां वा प्रभगितादिषु 'एगयरमवि' एकतरमपि-कञ्चिदेकर्माप 'ण पत्ता न प्राप्ता 'तं तत्-तस्मात् कारणात् 'सेयं श्रेयः 'खलु मम' खलु मम 'कलं जाव जलं ते कल्ये यावत् ज्वलति, कल्ये प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् 'उत्थिते'-उदिते मर्ये सहस्ररश्मो दिनकरे तेजसा ज्वलति-देदीप्यमाने सति 'सागरदत्तं सत्यवाह' सागरदन्तं सार्थवाहं 'आपुच्छित्ता' आपृच्छय 'सुबहुपुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं सुबहुपुप्पवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारं 'गहाय' गृहीत्वा 'बहुहिं' बहुभिः 'मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरियणमहिलाहि मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बबैठकर सुन्दर आलापों को एवं मधुर अपनी वाणी से "मा मा" इस कर्णप्रिय रमणीय शब्द को सुनाते हैं । 'अहं णं अधण्णा अपुण्णा अकयपुण्णा' मैं तो बिलकुल अधन्य हूं, अकृतपुण्य हूं और मंदागिनी हूं, जो 'एत्तो एगयरमवि ण पत्ता' उनके इन मधुर आलापादिकों में से किसी भी आलाप सुनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं कर रही हूं। 'सेयं खलु ममं कलं' अब प्रातः होने पर मुझे यही श्रेय है कि जब 'जलंते सूर्य अपनी आभा से चमकने लगेगा तब मैं 'सागरदत्तं सत्यवाहं आपुच्छित्ता' सागरत्त सार्थवाह से पूछकर 'सुवहुपुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं गहाय' अनेक पुष्प, वस्त्र, गंधमाल्य, एवं अलंकारों को लेकर 'वहहि मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परियणमहिलाहिं सद्धि अनेक मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनों एवं संबंधीजनों तथा परिजनों की महिलाओं के આલાપોથી પિતાની વાણુ વડે “મા-મા” એવા કર્ણપ્રિય શબ્દો સંભળાવે છે. “ગદં णं अधण्णा अपुण्णा अकयपुण्णा'ईतो तन माग्यहीन छु, भने महमाश्यवाणी धु. तेथी 'एत्तो एगयरमवि ण पत्ता तेना से मधुर भासपाहि पैठीना धान माता५ सालापार्नु सौलाग्य प्राप्त शयु नथी. 'सेयं खलु मम कल्लं' वे संपार पतi मारे भाटे ति:२ छे है न्यारे 'जलंते सूर्य पातानी मामाथी यभाग त्याहु:-'सागरदत्तं सत्यवाहं आपुच्छित्ता' साग२४त्त सार्थवाहने ५छी शने- 'मुबहुपुप्फरत्यगंधमल्लालंकारं गदाय' मने धु-५, १. गंध माध्य भने ने ने 'बहुहिं मित्तणाइ-णियग-सयण-संबंधि-परियण-महिलाहि सद्धि मने भित्री, शातिरना, स्वरो, समधान तथा परिजनानी सीगानी
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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