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विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० ६, नन्दिषेणवर्णनम् फलं याः खलु 'अप्पणो' आत्मनः स्वस्य 'पइस्स' पत्युः 'हिययमंसेणं' हृदयमांसेन 'जाव' यावच्छब्देन तलितेन भर्जितेन शूल्येन ‘सद्धि' साई 'सुरं च' मुरां च ५ 'आसाएमाणे४' आस्वादयत्यः ४ 'दोहलं जाव' दोहदं 'विणेति' विनयन्ति=पूरयन्ति, 'तं जइ अहमपि जाव' तद् अघहमपि यावत्-एवं प्रकारेण दोहदं 'विणिज्जामि' विनयामिपूरयामि तदा श्रेयः। 'तिकटु' इति कृत्वा इति विचार्य 'तंसि दोहलंसि' तस्मिन् दोहदे 'अविणिजामाणंसि' जाव अविनीयमाने-अपूरिते सति शुष्का बुभुक्षिता निर्मासा अवरुग्णा अवरुग्णशरीरा अपहतमनःसंकल्पा 'झियाइ' ध्यायति आर्तध्यानं करोति । 'रायपुच्छा' बन्धुमनुष्य सम्बन्धी जन्म और जीवन सफल है कि 'जाओ णं अप्पणी पइस्स हिययमंसेणं जाव सद्धि' जो अपने२ पति के हृदय के मांस के, यावत्-जो कि तलित-भर्जित ओर शूल पर रख कर पकाया हुआ हो, उसके-साथ 'सुरं च' मधु, मेरेक, जाति, सीधु और प्रसन्ना-ऐसे पांच प्रकार की संदिराओं का एक बार आस्वादन करतीं बार बार स्वाद लेतीं परिभोग करती और अन्य स्त्रियों को देती हुई 'जाव दोहलं विणेति' दोहद को पूर्ण करती हैं 'तं जइ अहमवि जाव' तो यदि मैं भी 'जाव' यावत् इसी प्रकार से श्रीदाम राजा के हृदयमांस को पांचो प्रकार की मदिराओं के साथ उपभोगादि करती हुई अपने दोहद को 'विणिज्जामि' पूर्ण करूँ तो अच्छा हो । 'त्ति कटु' ऐसा सोच कर वह 'तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि' उस दोहले के पूर्ण न होने पर 'जाव' यावत् सूकने लगी, मांस रहित, निस्तेज, रोगिष्ट, रोगકૃતવિભવ અર્થાત તેમણે જ પિતાના વૈભવ-સંપત્તિને દાનાદિ શુભ કાર્યોમાં સફલ કરી छ तेनामनुष्य सम्बन्धी राम सने न स छ :-' जाओ णं अप्पणी पइस्स हिययमंसेणं जाव सद्धि'२ पाताना पतिनायनां मांसने यावत-तणी मुंछने मने शूस ५२ राजाने ५४ावता साय गने तेनी साथे 'मुरं च ५' मधु-भे२४ જાતી, સીધુ અને પ્રસન્ન એવી પાંચ પ્રકારની મદિરા (દારૂ)ઓના એકવાર આસ્વાદન ४२, पारंवार साधने परिक्षा ४२ती अन्य श्रीमाने साधीन 'जाव दोहलं विणेति' होse (भनारथाने पूर्ण ४३ छे. 'तं जइ अहमवि' ताई ५g 'जाव' यावत से પ્રમાણે શ્રી દામ રાજાના હદયનાં માંસને પાંચ પ્રકારની મદિરાઓની સાથે ઉપભોગાદિ
शन भास हो भना२५ ‘विणिज्जामि' ४३ तो सा३ छ. 'त्तिक१' मा प्रभारी विचार शने त 'तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि' पोतानो होस n नडि पाथी 'जाव' यावत् सुरावा all, भूमी २२१t all भांसहित निस्तर