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विपाकचन्द्रिका टीका,श्रु० १, अ० १, मृगापुत्रं द्रष्टुं गौतमस्य भूमिगृहे गमनम्.९९ मुखपोतिकया मुखप्रोन्छनिकया-रजःस्वेदादिप्रोञ्छनार्थ यदन्यद् वस्त्रखण्डं हस्ते प्रियते सा मुखपोञ्छनिकेत्युच्यते तया, 'मुहं बंधेह' सुखं बनीतघ्राणमाच्छादयतेत्यथः, 'तए णं से भगवं गोयमे मियादेवीए एवं वुत्ते समाणे मुहपोतियाए मुहं बंधेइ' ततः खलु स भगवान् गौतमो मृगादेव्या एवमुक्तः सन् मुखपोतिकया मुखं बध्नाति-नासिकामाच्छादयतीत्यर्थः।।
'मुहं बंधमाणी' 'मुहं बंधेह 'मुहं बंधेई' इति वाक्यत्रये 'मुह'-शब्दो लक्षणया घ्राणस्य बोधकः । भूमिगृहद्वारोद्घाटनकाले दुर्गन्धाऽऽघ्राणवारणाय मुखवन्धनमनुपपन्नम् , मुखेन गन्धग्रहणाऽसंभवात् , तस्मादत्र 'मुह'-शब्दो न मुखपरः, किन्तु यथा-'गङ्गायां घोपः' इत्यत्र प्रचाहरूपे मुख्याधै घोपान्त्रएवं पसीना आदि को पोंछने के लिये जो एक दुसरा वस्त्रखंड क्षाय में रखा जाता है उसको सुखप्रोञ्छनिका कहते हैं उसले अपनी नांक को हक लीजिए । 'तए थे' तत्पश्चात् ‘से भगवं गोयमे ' दे गौतम स्वामी 'मियादेवीए एवं बुत्ते समाणे' मृगादेवीके द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर 'मुहपोत्तियाए' लुखप्रोञ्छनिका से 'सुहं बंधेइ' अपनी नाक को ढक लिया।
'मुहं बंधयाणी' 'मुहं बंधेह 'सुहं बंधे। इस बाश्यत्रय में 'मुख' यह पद लक्षणा से 'नाक' इस अर्थ का बोधक है, ऐसा समझना चाहिये । क्यों कि यहां पर जो सुख का आवरण करना प्रकट किया गया है वह नाक को ढकने के उद्देश से ही समझना चाहिये, कारण कि भूमिगृह के द्वार का उद्घाटन करने से जो तीव्रतम-असहा दुर्गध आवेगी उस का सूंघना-कार्य मुख नहीं कर મુખનિકાથી, અર્થાત પૂલ અને પરસેવા આદિને લુછવા માટે જે એક બીજું વઅખંડ-કપડાનો ટુકડે હાથમાં રાખવામાં આવે છે તેને મુખનિકો કહે છે. તેના 43 आपना नाने cil क्ष्यो. 'तए णं' त्या२पछी ‘से भगवं गोयमे' ने गौतमची 'मियादेवीए एवं वुत्ते समाणे भृगावाना ४वन प्रभात ‘मुहपोतियाए ' भूभनी 43 'मुहं बंधेइ' पोतार्नु न in eng:
'मुहं बंधमाणी' 'मुदं बंधेह' 'मुहें बंधेड' मा ३ सय ‘भु५.२ ५६ क्षमाधी 'ना' अर्थनी .५ ४३ हे न समायुं . કારણ કે અહીં આગળ જે મુખનું આવરા કરવાનું પ્રકટ કર્યું છે તે નાક બંકવાડ ઉથી જ સમજવું જોઈએ, કેમ કે લેયરના દરવાજાને ઉઘાડવાથી જે તીવ્રતઅસહ્ય દુર્ગધ આવે, તેની ગાંધ લેવી તે કાર્ય મુખનું નથી, એ કામ તે નાકનું છે,