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प्रियदर्शिनी टीका अ० ३४ नीललेश्यायाः लक्षणनिरूपणम्
अभावः, अविद्या-कुशास्त्ररूपा, माया प्रसिद्धा, अहीकता-असदाचारकरणे लज्जाया अभावः, गृद्धिः-विषयेष्वासक्तिः, प्रद्वेषश्च, इह सर्वत्राभेदोपचारात् तद्वान् जीव एव गृह्यते । अत एव शठा वञ्चकः, प्रमत्तः-प्रकर्षण जात्यादिमदयुक्तः, रसलोलुपःशातगवेषकः, 'अमरिस' इति 'अविज्ज' इतिच लुप्तप्रथमान्तम् , अस्या अग्रिम गाथया सह सम्बन्धः ॥ २३ ॥
'साय गवेलए थ' इत्यादि-- सातगवेषका-विषयसुखार्थी, आरम्भात माणिवधात् , अविरत:-अनिवृत्तः, अन्यत् सर्व स्पष्टम् ॥ २४ ॥ (अतवो-अतपः) तपश्चर्या करनेले विमुख रहना (अविज-अविद्या कुशास्त्रों में तत्पर रहना (माया-माया) छल कपट करना (अहिरिया अहीकता ) लज्जारहित होना (गेहि-शृद्धिः) विषयों में आसक्ति का होना (पओले-प्रदेषश्च ) द्वेष रखना (लढे-शठः) दूसरों की प्रतारना ठगाई-करना (पमत्ते-प्रमत्तः) जात्यादिक भदों से अत्यंत युक्त रहना (रसलोलुए-रसलोलुपः) रलना इन्द्रिय के विषय में लोलुप बनना ॥२३॥ । तथा--'लायनवेलए' इत्यादि। ____ अन्वयार्थ-(सायगवेसए-सातगवेषकः) साता का गवेषी होना (आरम्भाओ अविरओ-आरम्भात् अनिवृत्तः) प्राणि वध के स्थानभूत आरंभ से विरक्त नहीं होना (खो-क्षदः) स्वप्न में भी दसरों के हित की अभिलाषा वाला नहीं होना (साहरिलओ-साहसिकः) विनासोचे समझे काम करने लगना, इत्यादि लक्षणों से युक्त प्राणी नीललेश्या के परिणाम वाला जानना चाहिये ॥२४॥ अमर्षः शेष ४२वी, तथा सहा शेषमय परिणाम राय, अतवो-अतपः तपस्या : ४२वाथी विभुम हे', अविज्ज-अविद्यो शालीमा तत्५२ रहे, माया माया: .७१४५८ ४२खु, अहरिया-अहीकता ecent २डित थ, गेहि-गृद्धिः विषयोमा मासहित रामवी, पओसे-प्रद्वेषश्च देष रामवी, सढे-शठः मीनयानी . .. 3२वी, पमत्ते-प्रमत्तः त्या महाथी सत्यत युक्त २९, रसलोलुए-रसलोलुपः ઈન્દ્રિયના વિષયમાં લુપતા રાખવી. ર૩
तथा-" सायगवेसए " त्या!
मन्याथ-सायगवेसए-सातगवेषकः साताना द्वेष ४२वी, आरम्भाओ अविरओ-आरम्भात् अनिवृत्तः प्राणी पधना स्थानभूत मामयी वि२४त न थj, खुद्दो-क्षुद्रः स्वामी यातना हितनी मलिलाषा न रावी साहस्सिओसाहसिकः १२ वियाय भने ४२qu anी ४, त्यादि साथी - युक्त પ્રાણ નીકલેશ્યાના પરિણામવાળે જાણવો જોઈએ. ર૪ . . .