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उत्तराध्ययनसूत्रे - टीका-'एमेवरूवम्मि' इत्यादि. रूपे अमनोज्ञरूपविपये, प्रद्वेषं गता प्राप्तश्च । एवमेव-यथारूपानुरक्त स्तथैव, दुःखौघपरम्पराः उत्तरोत्तरदुःखसमूहान् , उपैति प्राप्नोति । तथा-प्रद्विष्टचित्ता प्रकर्षेण द्विष्ट प्रविष्टं चित्तं यस्य स तथा-द्वेपपरिपूर्णचित्तः सन् तत् कर्म चिनोतिउपार्जयति । तस्य-उपाजित्तकर्मणः, विपाके-अनुभवकाले, इह जन्मनि, परभवेचेत्यर्थः, पुनर्मुखं भवति । इह-पुनर्दुःखग्रहणमैहिकदुःस्वापेक्षम् , अशुभकर्मोपचयश्च हिंसाधास्त्रवाविनाभावीति तद्धेतुत्वं द्वर्षस्यापि रागवदिति सचितम्॥३३॥ ___ इस प्रकार रूप के विषय में अनुराग अनर्थ का हेतु है यह बात यहां तक कही गई है अब उसमें द्वेप करना यह भी अनर्थ का हेतु है यह बात सूत्रकार कहते हैं-'एमेव' इत्यादि। ___अन्वयार्थ--(रूवम्मि-रूपे) अमनेाज्ञ रूपके विषय में (पओसं गओप्रद्वेषं गतः) प्रद्वेष करनेवाला मनुष्य (एमेव दुक्खोहपरम्पराओ उवेइ--- एवमेव दःखौघपरम्पराः उपैति ) इसी तरह दुःखांकी परम्पराओं को प्राप्त करता है। (पदुट्टचित्तो य कम्भ चिणाइ-प्रदुष्टचित्तः कर्म चिनोति) द्वेषसे परिपूर्ण चित्त बना हुआ वह मनुष्य जिन कमें का बंध करता है
से विवागे-तस्य विपाके) उन कर्मों के विपाक समय में उसको (पुणो दुहं होइ-पुनः दुःखं भवति ) इस जन्म में तथा पर जन्म में दुःख ही मिलता है। गाथा में दुःख का दो बार ग्रहण करने से यह भाव प्रकट होता है। कि उसको भव-भव में दुःख ही भोगना पडता है। तथा अशुभ की का वह बंध करता है। जो बंध हिंसादि आस्रव के विना नहीं होता ( આ પ્રમાણે રૂપના વિષયને અનુરાગ અનર્થને હેત છે આ વાત અહીં ત્યાં સુધી બતાવવામાં આવી ગઈ છે. હવે એમાં દ્વેષ કરે એ પણ અનર્થને हेतु छ मा पातने सूत्र४२ मताव छ-" एमेव" त्याह
सन्क्याथ-रूवम्मि-रूपे अभनाज्ञ ३५ना विषयमा पओस गओ-प्रद्वेष गत' प्रद्वेष ४२वापाणे मनुष्य एमेव दुक्खोहपरंपराओ उवेइ-एवमेव दक्खौघ परम्परा उपैति शत मानी ५२५२यान प्राप्त ४२ते। २ छ पद्दचित्तो य कम्म चिणाइ-प्रदुष्टचित्त. कर्म चिनोति द्वेषथी रेनु सा३ये मन परिपूर्ण मराये सेवा से मनुष्य २ ४ीना मध ४२ छे से विवागे-तस्य विपाके से
भाना विधान सभये तेने पुणो दुहं होइ-पुन' दुःखं भवति २ ममा દુઃખ જ મળે છે. ગાથામાં દુ ખનુ બે વખત ગ્રહણ કરવામાં આવેલ હોવાથી
प्रगट थाय छ, मेने स-५२ममा हुन लागवयु ५ छे. Iભ કર્મોને એ બંધ કરે છે જે બંધ હિંસાદિ આમ્રવના વગર થતો