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________________ ८०३ प्रियदर्शिनी टीका अ २२ नेमिनाथचरितनिरूपणम् सुदुर्लभ-मुदुप्पापम् । ततः पश्चात्-भुक्तमोगिनौ-मुक्ता भोगाः भुक्तभोगान्त सन्ति ययोम्तौ तथा-आसेवितशब्दादिकामभोगी आवा जिनमार्ग-जिनोक्त चारित्ररक्षण मोक्षमार्ग चरिप्यावा-सेपिप्यावहे ॥३८॥ एर स्थनेमिना माता सा राजीमती सावी यदारोत्तदुच्यते-- मूलम् दटुण रहने मित, भग्गुज्जोयपराइय। राईमई असंभता, अप्पणि सवरे तहिं ॥३९॥ या दृष्ट्वा रयनेमि त, मग्नोद्योगपराजितम् । राजोमतो असभ्रान्ता, आत्मान सरणोति तच ॥३९॥ टीका-हण' इत्यादि ।। राजीमती मोवी भग्नोद्योगपराजित-भग्नोयोग'-भग्ना नष्टः उद्योग' 'ण, इत्यादि। अन्वयार्थ-हे सुन्दरि ! (हि-पहि) आओ (भोए भुजिमो-भोगान् भुञ्जीवरि) हमतुम दोनों विपय भोगों को भोगें। देखो (खु-खलु) निश्वय से (माणुस्स मुदलह-मानुप्य सुदुर्लभम्) यह मनुष्यभव अत्यत दुर्लभ है। (तओ पच्छा-तत. पश्चात् ) इसके बाद (भुत्तभोगी-भुक्तभोगिनी) भुक्तभोगी होकर हम तुम दोनों (जिणमग्ग चरिस्सामोनिनमार्ग चरिप्याव') जिनोक्त मार्ग-चारित्रलक्षणरूप मोक्षमार्ग का सेवन करेगे ॥३८॥ . रथनेमि के इस प्रकार के वचन सुनकर राजीमतीने जो किया सो कहते हैं--'दहण' इत्यादि । अन्वयार्थ-(राईमई-राजीमती) राजीमती सावीने (भग्गुजोय ___"एहि त्या भन्याय---- सुER ! एहि-एहि भावो भोए भुजिमो-भोगान् भुञ्जीवही पापणे भन्ने विषय मागान गनीमे गुमा खु-खलु निश्चयथा माणुस्स सुदुल्लह -मानुप्य सदर्लभम मा भनुध्यक्ष सत्यत छ तओ पच्छा-तत. पश्चात ते पछी माय भुत्तमोगी-भुक्तभोगी मापणे भन्न जिणमग्गचरिम्सामो-जिन મા વરિ જીનેક્ત માર્ગ–ચારિત્ર લક્ષણરૂપ મેક્ષમાર્ગનું સેવન કરીશુ પા૩૮ રથનેમિના આ પ્રકારના વચન સાંભળીને રામતીએ જે કહ્યું તેને કહે છે – "दण" त्या! *स-या--राईमई-राजीमनी मती मावीमे भागुज्जोय पराइय भग्नो૧૦૧
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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