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________________ ७८६ उत्तरायनम श्रुत्वा कर्णाकर्णि समाये निर्धामा निर्गतो हासो यस्याः सा तथा हास्यरहिता तु = पुन. - निरानन्दा - निर्गत आनन्दो यम्या सा तथा आनन्दरहिताच जाता । तु पुन शोकेन समूर्च्छिता जाता ||२८|| सखीभिः शीतलापचारादिना लव्यज्ञा सा यत्क्रताती, तदुच्यते-मूलम् - राईमेई विचितेई, धिरेत्थं । ममं जीविये । जाह तेर्ण परिचत्ता, सेय" पत्राइड मेम ॥२९॥ छाया -- राजीमती रिचिन्तयति, धिगस्तु मम जोवितम् । यह तेन परित्यक्ता, श्रेय मनजितु मम ॥ २९ ॥ टीका- 'राईमई' इत्यादि । सम्प्राप्तचैतन्या राजीमती विचिन्तयति मम जीवित धिगस्तु । यद्यह तेन भगवता परित्यक्ता तर्हि मम मनजितु मत्रज्या ग्रहण श्रेय. कल्याणकरम्, नतु गृहेऽवस्थानम् । येनान्यजन्मन्यपि दुःखभागिनी न भवेयम् ॥ २९ ॥ (फव्वज्ञ सोकण-प्रन वा दीक्षा ग्रहण करने की सुनकर (निहामा निरानदा - निसा निरानदा) हास्यभाव से एव आनदभाव से राहत होकर (सोगेण समुच्छिया शोकेन समच्छिता) शोक से सतप्त होकर मूच्छित हो गई ||२८|| सखियों के द्वारा शीतलोपचारो से स्वस्थ होने पर राजीमतीने जो किया सो कहते है- 'राईमई' इत्यादि । अन्वयार्थ - जब सग्वियोंने शीतलोपचार द्वारा उसको सचेत किया तब वह (राईमई - राजीमती) राजीमती (विचितेड - विचिन्तयति ) विचार करने लगी कि - (मम जीविय धिगत्थु मम जीवित धिक् अस्तु) मेरे इस जीवन को विकार है क्योंकि - (जाह तेण परिचत्ता मम पव्वउ पनज्याहीक्षा थडलु श्यतु सालगीने निहासा निरानदा- निर्दोसा निरानदा डाभ्यभाव अने मान इलावथी रडित मनी सोगेण समुच्छिया - शोकेन समूर्च्छिता' ચૈાકા સતપ્ત થઈને મૂકિત બન ગઈ મારા સખીઓએ શીતલ ઉપચાર કરીને અગ્નિમા લાવ્યા પછી રાજીમતીએ શું કર્યું ते आहे -- "राईमइ" इत्यादि । જયારે સખિએ એ સ્મૃતિ અનેલ રાજીમતીને શીતળ એવા ઉપચાશ કરીને शुविमा अत्यारे ने राई मई- राजीमतो राष्ट्रमती स्वत विचितेइ - विचिन्तयति वियार ४२वा साथी है मम जीविय धिगत्यु-मम जोवित धिकस्तु भाग मान •ने विकार प्रेम है, जा तेण परिचत्ता मम पत्रइय सेय-यदि अह तेन परित्यक्ता ८
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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