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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ १० गा १६ भिगुणप्रतिपादनम् दानि न स , वर्गीकृतन्द्रिय इत्यर्थः, तथा सर्वत. सर्वप्रकारेण विप्रमुक्त = पाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहित तथा-अणुपायी-अणार -सान्पा -सज्वलननामान इति यावत् , ते च ते पाया , ते सन्ति वम्यासी अणुरुपारी, मन्दकपायवानित्यर्थ , प्राकृतत्वात्कारम्य द्वित्वम् । यहा-'अनु कपायी' इतिछाया अल्प पायग नित्यर्थ । तथा-- वल्पभनी--पूनि नि साराणि पर्युपिताम्लतमिक्ति वल्लचणकाधन्नानि जल्पानि तोकानि भमित शीरमम्येति लाल्पाली-अत प्रान्तानपानसेगीत्यय , एतादृग मन य माधुर-द्रव्यभावगृह त्यतया एक्चर' रागद्वेपरहित' गव शत्रु जिसका कोई नहीं है (जिटिओ-जितेन्द्रिय ) इन्द्रिया जिसकी वा मे है (मन्त्रओ विप्पम-नर्वन विप्रमुत्त । मर्व प्रकार से जो बाध एव आभ्यन्तर परिग्रह से रहित दुआ है तथा (अणुक्कसाईअणुरुपायी) मन्दकपायवाला है (लह अप्पमक्खी-लध्वल्पमोजी ) ल-निगार, पयुपित आम्ल तक्रमिश्रित बचणक आदि अन्न को अल्पमात्रा मे जो लेता है-अर्यात्-अन्त प्रान्त अन्न पान का जो सेवन करने वाला है, ऐमा साधु 'गिह चिचा-गृह त्यत्तवा) द्वन्य एव भाव गृह का परित्याग करके (पगे-ग) रागडेप से रहित होकर चरेविचरेव) सयममार्ग मे विचरण करता है (म भिख-स भिक्षुः) वही भिक्षु है । (त्ति बेमि-इति ब्रवीमि) इसी प्रकार भगवान के मुग्व से मैने सुना है सो तुम से कहा है । __ भावार्थ-जो अशिल्पजीवी है, न जिसको अपना कोट घर है और न जिसका कोई शत्रु व मित्र है, इन्द्रियों की दासता का जिसने परिहार कर दिया है उनके अनुसार जो नहीं चलता है प्रत्युत इन्द्रियो जिइदिओ-जितेन्द्रिय ना धन्द्रियो वशमा छ सबओ विप्पमुक्ते-सर्वतः विषमुक्त. सर्व माना पानी भने म १२ परिवहथी रे हित अनेस छ तथा अणुक्साई-अणुऊपायी मह पायवाणा छ लह अप्पमक्खी-र वल्पभोजी લધુનિ સાર, પર્યુંષિત ખાટી છાશથી મિશ્રિત બલચક આદિ અને અલ્પ માત્રામાં જે લે છે અર્થાત–અન્ત પ્રાન્ત અનપાનનું જે સેવન કરવાવાળા છે એવા સાધુ गृह चिचा-गृह त्यक्त्वा द्रव्य मन भावन परित्याग ४शन, एगे-एक २१वषयी २डित मनाने चरे-दिरचेत् सयभागमा वियर २ छ स भिक्खस भिक्षु ते लक्षु छ (त्ति मि-इनिम म) ५ २ भगवानना माथी જે મે સાભળેલ છે તે તમને કહેલ છે ભાવાર્થ-જે અશિલ્પજીવી છે, જેને પિતાનુ કેઈ ઘર નથી તેમજ જેને કઈ મિત્ર કે શત્રુ નથી ઇન્દ્રિય ઉપર જે કાબુ મેળવેલ છે પરંતુ એની માફક જે
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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