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प्रियदशिनी टीका अ. २१ एकातचर्याया ममुद्रपालप्टान्त
६६० दुस्तर समुद्रामवतरित्वा-उत्ता अपुनरागम-नास्ति पुनरागमा आवत्तेन यस्मातन्मोक्षरुप स्थान गत = सिद्धि प्राप्त इत्यर्थ । 'इति ब्रवीमि' इत्यस्यार्थ. पूर्वपद् गो-य. ॥२४॥ इतिश्री-विश्वविग्यात-जगहल्लभ-मसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितालापा गपक-परिशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापर-पादिमानमर्दक-गाइछत्रपति-कोल्हा पुर-राजमदत्त-'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-पालनह्मचारि जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलालप्रतिविरचितायामुत्तरा ययनसूत्रस्य प्रियदर्शिन्याग्याया व्याख्याया महानिग्रन्थीय
नामैकारिंशतितममध्ययन सम्पूर्णम् । महाभचौघ तरित्वा) दुस्तर समुद्र के समान इस महान ससारसमुद्र को पार करके (अपुणागम गा-अपुनरागम गत.) मुक्तिस्थान रूप अपुनरागमस्थान को प्राप्त रिलिया। हे जम्बू (त्ति वेमि-इति ब्रवीमि) जैसा मैंने वीर प्रभु के मुग्व से सुना है वैसा ही तुमसे कहता हु ॥२४॥
इस प्रकार इकीसवाँ अध्ययन सपूर्ण हुआ २१॥ समुद्र मिव महाभवौघ तरिता इतर समुद्र समान म. मडान ससारसमद्रने पारशन अपुणागम गए-अपुनरागम गतः मुहितस्यान भूत अपुनरागम स्थान प्राप्त श दी ! ति रेमि-इति ब्रवीमि पु मे पा२प्रमुना भुमेथी सामन्यु छ એવુ જ હું તમને કહુ છુ પરા
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રનુ એકવીસમું અધ્યયન સ પૂર્ણ કરવા