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________________ ६६० গনম - सम्मति अध्ययनार्थमुपसहरन् समृद्रपालमुनिनाऽऽचरितम्य साधुधर्मस्य फलमाह--- दुविहं खवेऊण ये पुन्नपान, निरगंणे सबओ विप्पमुक्के । तरित्ता समुंद्द वे महाभंवोह, समुद्देपाले अपुर्णागम गणे, तिं वेमि" ॥२४॥ ॥ इइ समुद्दपालीय एगवीसडम अज्झयण समत्त ॥२१॥ छायाद्विविध क्षपयित्वा च पुण्यपाप, निरगण सर्वतो विप्रमुक्त। तरित्वा समुद्रमिव महाभौध, समुद्रपाल अपुनरागम गत इति प्रवीमि ॥२४॥ टोका-'दुविह' इत्यादि। समुद्रपालो महर्पि. द्विविध-घातिक भोपग्राहिक चेति द्विमकार पुण्य पाप-शुभाशुभप्रक्रतिरूप कर्म चक्षपयित्वा-निरगगण सयम प्रति निश्चल , शैलेश्य वस्था प्राप्त इति यावत्, अत एव-सर्वत' वाद्यादाभ्यन्तराच परिग्रहाद् विम मुक्त:-रहित' महाभवौघ-अतिदुस्तरतया महान् यो भवौष =देवादिभवसमूस्त द्वारा आचरित धर्म का फल कहते हैं-'दुविह' इत्यादि। अन्वयार्थ-(समुद्दपाले-समुद्रपालः) समुद्रपालमुनिराजने (दुविह पुन्नपाव खवेउण-द्विविध पुण्यपाप क्षपयित्वा) घातिक एव भवोपग्राहिक शुभाशुभ प्रकृतिरूप कर्म का क्षपण करके (निरगणे-निरगण:) शैलेशी अवस्था सपन्न होकर (सव्वओ विप्पमुक्के-सर्वत. विममुक्त.) बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह त्याग से (समुद्द व महाभवोत् त्तरित्ता-समुद्र मिव घना जने ४३ छ-"दुविह" त्यात __ मन्या -समुद्दपाले-समुद्रपाल• समुद्रपात भुनिने दुविह पुण्णपाव खवेऊण -द्विविध पुण्यपाप क्षपयित्वा धाति भने नवोपया िशुलाशुम प्रति३५ मनाना क्षय ४शेने निरगणे-निरङ्गण. asी अपस्या सपन्न शने सबओ विप्पमुक्केसर्वत विममुक्त मा अन्य तर परिवहन त्यागयी समुद्द व महाभवोह तरित्ता
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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