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________________ २६ उसराध्ययनसूत्रे पान-पौनजलाटिकम् , भोजन-विशुद्धाहारः, एरा समाहारस्तम्मिन, तपा-पिषि =अनेकविये ग्यादिमस्वादिमे-वामिम्-अचित्तैपगीयपिण्डखजूरादिकम् , स्वादिमम्, लबादिकम् , अनयो. समाहारस्तस्मिश्च स्वगृहे विद्यमानेऽपि परैः= गृहस्थजनैः कृपगत्वादिकारणेन अदत्ते तथा-दुर्लभपोधित्वेन प्रतिपेधिते="रे भिक्षो! न त्वया काऽप्यस्मद्गृहे आगन्तव्यम् , न कदाचिदपि तुभ्य किमपि दास्यामी"-त्येव प्रतिपिढे च सति यो निर्ग्रन्थः साधुस्तर-तेषु गृहस्थजनेषु न प्रद्वेष्टि-पद्वेप न करोति, स भिक्षुरुज्यते। अनेन कोधपिण्डपरिहार उक्तः। उपलभगत्वादशेपभिक्षादोपपरिहारो गोभ्यः । 'परसि' इति तृतीयार्थे पष्ठी ॥११॥ तथा-सयणासण' इत्यादि। अन्वयार्थ-(परसि-परैः) गृहस्थजनो द्वारा (सयणासणपाणभोय ण-शयनासनपानभोजने) शयन-गय्या सस्तारक आदि-आसन-पीठफलक आदि पान-धोतजलादिक, भोजन-विशुद्ध आहार आदि तथा (विविद ग्वाइमसाइम-विविधे ग्वादिमस्वादिम) अनेकविध अचित्तएषणीय पिण्ड खजूर आदि ग्वादिम, तथा लवगादिकरूप स्वादिम वस्तु (अदए-अदत्ते) अपने घरमे विद्यमान होने पर भी कृपणतावश यदि नहीं दी गई हो, तथा दुर्लभगोधि होने के कारण (पडिसेहिए-प्रतिपेधिते) उन्होंने ऐसा भी कह दिया हो कि-रे भिक्षो ! अब तुम हमारे घर पर भूलकर भी पग मत रखना कभी भी मत आना मैं तुमको कुछ भी नहीं दगा' इस तरह से आने के लिये निषेध भी कर दिया हो तो भी (नियठे-निर्ग्रन्य') निर्ग्रन्थ-सायु (तत्थ न पउस्सइ-तत्र न प्रद्वेष्टि) उनके ऊपर द्वेषभाव नहीं करता है (स भिक्खू-स भिक्षु.) वही भिक्षु तथा--" सयणासण " त्यहै। सन्क्याथ-एरसिं-परै गृहस्थ नो त२५थी सयगासणपाणभोयण-शय नासनपानभोजने शयन-शय्या सस्तारन माहि, सामनपी: ५०४ आदि, पान -धीन vallesal1-विशुद्ध साहार माह तथा विविह खाइम साइम-विविये खादिमस्वादिमे अनविय अथित्त-मेषीय पिs म२ माहि, स्वाभि-सवि ६४३५ स्वाभि वस्तु अदए-अदत्ते पाताना घरमा विद्यमान सपा छता पर पशुताश ले आयाम आस नायता दुलाधिपानार पडिसेहिएત્તિપત્તેિ એણે એવું પણ કહી દીધું હોય કે, હે ભિક્ષુ તમે અમારા ઘર ઉપર ભૂલેચુકે પણ આજથી કોઈ દીવસ પગ મુકશે નહી હુ તમને કાઈ પણ આપનાર नथी मा प्रभाले मापवानी मना री हाय छ। ५ नियठे-निग्रेथ निश्रय साधु तत्थ न पउस्सइ-तत्र न प्रद्वेष्टि मेमना ५२ द्वेषस रामता नयी स भिक
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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