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________________ ६२३ पादि। प्रियदर्शिनी टीपा । २० महानिर्ग्रन्यस्वरपनिरूपणम् १३ अथ यत्ततव्य तदुपदिशति मूलम् - मुच्चाण मेहोवि सुभासिय ईमं, अणुसासण णाणगुणोववेय । मग्ग कुसीलाण जहाय सव्व, महानियठाण वएँ पहेण ॥५१॥ छाया-त्वा मेगापिन । मुभापितमिदम् अनुगामन बानगुणोपपेतम् । मार्ग कुशीठाना हित्वा सर्व, महानिर्ग्रन्याना जे पग ॥५१॥ टीका--'मुचाण' इत्यादि । हे मेधारिन धारणाद्धीयुक्ता, राजन् । वीतरागेण सुभापित मुष्टुनया यागत येन भापित ज्ञानगुणोपपेत-ज्ञानस्य यो गुणो विरतिलक्षणस्तेन उपपेत युक्तम्, यहा-ज्ञानेन पञ्चविन गुणेनरामगुणेन-विरतिलक्षणेन च उपपेत= युक्तम् , इदम् अनन्तरोक्तम् अनुशामन श्रुत्वा, कुशीलाना च सव मार्ग हित्वा-त्यक्तवा, महानिग्रन्थाना-महासाधूना पयाम गंग नजे =गरे ॥५१॥ पर के परित्राण करने में असमर्थ होने की वजह से यह द्वन्य लिंगी का अनाथपना जानना चाहिये ॥५०॥ अन तन्य कहते ह–'सुचाण' इत्यादि। अन्वयार्थ (मेहावि-मेधाविन्) हे धारणा वुद्धि सपन्न राजा वीत राग हारा (सुभासिय-सुमापितम्। यथातथ्यरूप कथित तया (णाणगुणोववेय-ज्ञानगुणोपपेतम्) ज्ञान के विरति लक्षणस्प गुण से अथवा पचविध विरति रक्षण गुण से युक्त (इम-उदम्) यह-अनन्तरोक्त (अणुसासण-अनुशासनम्) अनुशासनको (सुच्चाण-श्रुत्वा) सुन करके तथा (कुसीलाण सव्व मग्ग जहाय-कुशीलाना सर्व मागे हित्वा) कुशीलो के ममस्त मांग का परित्याग कर के तुम (महानियठाणपहेण वहेતેને સહાય કરનાર બનતુ નથી આ પ્રકારથી સ્વપરનુ પરિત્ર ણ કરવામાં અસમર્થ હેવાના કારણે તે દ્રવ્યલિ ગીનું અનાથપણુ જાણવું જોઈએ, પણ वे व्यने ४ छ-"सुच्चाण" या अन्या-मेहावि-मेधाविन् । २९। मुदि सपन्न २ 11 वीतराग तथा सुभमिय-सुभाषितम् यथातथ्4 ३५ ४वायला तयाणाणगुणोक्वेयम्-ज्ञानगुणो पपेतम् ज्ञानना विति GR ३५ गुस्थी मथव पयविध वितिक्षा गुपयी युत दद-इदम् ॥ अनन्तरात अणुप्सासण-अनुशासनम् अनुशासनने सुच्चाण-श्रत्वा भामणीन तथा कशीलाण सन्च मगा जहाय-कुशीलाना सर्व मागे हित्वा उशीवाना सघणा भागांना परित्या11 तभी महानियठाण पहेण वहे महानिग्रन्थाना पथा प्रजे
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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