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प्रियदर्शिनी टीका अ60 महानिप्रयम्बगपनिरपणम्
टीश-'जो' इत्यादि।
य पत्रव्य-दीक्षा गृहीत्वा महानानिमाणातिपातविरमणादि स्पागि पञ्च महानतानि प्रमादान हेतोच सम्यर नो स्पृशनि-न पालयति । अनि ग्रहात्मा- अनिग्रह-निग्ररहित आत्मा यम्य म तया,-अनितेन्द्रियः, अत एव-रमेपु-मधुरादिपु रद्ध गृद्धिमान स मोरमनजित. धन- यतेऽनेनेति मधन रागद्वेगात्मक पन्धन मृलत्तो न निति ॥३९॥
आउनैया जस्त य नंथि काड, इरियोड भासाड तहसणाएँ । आयाणनिक्खेव दुगुर्छणाए, ने वीरजाय अणुजाइ मन्गं ॥४०॥
इमी बात को उम गाथा द्वारा प्रकट करते है-'जो' इत्यादि ।
अन्वयार्य-(जो पबहत्ताण-यः प्राज्य) जो मनुष्य मुनिदीक्षा पारण करके (महन्वयाड सम्म च नो फासयद-महानतानि सायक नो पृ.) गति प्राणातिपातविरमण आदिरूप महानतों का अच्छी तरह पालन नहीं करता है (से-म ) वह (अणिग्गइप्पा-अनिग्रहात्मा) अजितेन्द्रिय न्यक्ति (रसेसु गिद्ध-रसेपु गृद्ध) मधुर आदि रमों मे गृद्धि वाला होता हुआ (मूलओ घण न लिंदड-मूलतः घन्धन न छिनत्ति) सम्रल रागडेप स्पी
पन का छेदन करने वाला नहीं हो सकता है। अर्थात-जो मनुष्य मुनितीक्षा धारण करके भी इन्द्रियों का दास बना रहता है और इसी कारण महाननों का सम्यक्ररीति से परिपालन नहीं करता है पता व्यक्ति रसों की गृद्वता से गगडेप पर विजय नहीं पाता है ॥३९ ।।
આ વાતને આ ગાથા દ્વારા પ્રગટ કરવામાં આવે છે-“નો ઇલાદિ
सन्या -जो पञ्चदत्ताण-य प्रवन्य रे मनुष्य भुनिहीक्षा घा२९५ ने महन्मयाइ सम्म च नो फासय इ-महानतानि सम्यक नो प्रशति प्रातिपात विरभय मा३ि५ महानतानु सारी शत पादान ४२ता नथी, से-स अनिग्गहप्पाअनिग्रहात्मा मलतद्रिय व्यति रसेस गिद्धे-रसेपु गृद्ध मधुर मा मामा - पाणी सनीने मूलओ वधण न दिद-मूलतो वधन न छिनत्ति रागद्वेष३पी धननु છે ન કરવાવાળા બની શકતો નથી અર્થાત્ જે મનુષ્ય મુનિદીક્ષા ધારણ કરીને પણ ઇન્દ્રિયને દાસ બની રહે છે અને એ જ કારણથી મહાનતાનુ સમ્યફ રીતિથી પરિપાલન કરતું નથી એવી વ્યકિત સેની ગૃઢતાથી રાગદ્વેષ ઉપર વિજય મેળવી શકતી નથી ૩લા