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उत्तराभ्ययनपत्रे
तथा च-- मूलम्--गारंवेसु कसाएसु, दडसल्लभण्सु य ।
नियंत्तो हाससोगाओ, अणियाणो अवधणी ।।९१॥ छाया--गौरयेभ्य पायेभ्यो, दण्डशल्यभयेभ्यश्च ।
निरत्तो हामशोकाद , अनिदान अन्धनः ॥११॥ टीका--'गारमु' इत्यादि।
गौरवेभ्य, ऋद्धि गौरवादिभ्य , पायेभ्यः क्रोधादिम्पायेभ्य , दण्डशल्य भयेभ्या-दण्ड -मनोगामायाना सावधव्यापारस्प , मायागल्य निदानशल्य मिथ्या दर्शनशल्य चैतच्छल्यत्रय, भयानि=हरोमिय परलोकभयम् श्रादानमरम् प्रास्माद्भय मरणभयम् , अयशोभयम्, श्राजीपिसाभय चेति समभयानि, दण्डादीनामिवरेतरयोगद्वन्द्व., तेभ्य , तथा-ठासशोकात्म्हासच गोश्वेति हासशोक तस्माच नित्त. सन् अनिदान =मायादि-निदानानित , अबन्धन रागद्वेष पन्धन रहितो जात । 'गारवेसु कसाएस दडसलभएस' इत्यत्र पञ्चम्यर्थे सप्तमी।९।।
फिर--'गारवेसु' इत्यादि। ___ अन्वयार्थ--तप करते २ ऋद्धि आदि तीन प्रकार के (गारवे-गौग्वेभ्य) गौरवों से क्रोधादिक-चार प्रकार की (कसासु-कपाभ्यो) कपायों से, मन, वचन एवं काय के सापद्य व्यापार रूप (दडसलमासु य-दण्डशल्य भयेषु च) मनोदण्ड, वचनदण्ड, कायदण्ड तीन दडों से, मायाशल्य, निदानशल्य, एव मिथ्यादर्शनशल्य इन शल्यों से, इह लोकभय, परलोकभय, पादानभय अकस्मातभय, मरण भय, अयशोमय, एव बाजी विकाभय, इन सात भयों से तथा (हाससोगाओ नियत्तो-हामशोकात् निवृत्त') हास, शोक से नित्त हो कर वे मृगापुत्र मुनिराज (अणियाणो अवधणो-अनिदान अबन्धन.) अनिदान और अबन्धनरूप बन गये ॥२१॥
पछी--"गारवेसु" त्या ___ अन्वयार्थ-त५ ४२॥ ४२ शिद्ध मात्र माना गारवेसु-गौरवेभ्य गौरवाथी, पाEि यार प्रा२ना कसाएसु-कापायेभ्य पायोथी भन क्यन मन
याना सावध ॥पा२ ३५ दडसल्लभएमु य दण्डशल्यभयेषु च भने वयन, કાયદડ એ ત્રણ દડાથી, માયાશલ્ય, નિદાનશલ્ય અને મિથ્યાદર્શન શલ્ય, આ શાથી, આ ક ભય પલેક ભય, આદાન ભય, અકસમાત ભય, મરગ ભય, अयशा भय, भने मालlast लय, मासात लयाथी तथा हाससोगामी नियत्तोहासशोकात् निवृत्त हास्य साथी निवृत्त ने मुनिश-भूमीपुत्र अणियाणो अवधणो-अनिदान अपन्धन भनिहान भने मम धन३५ भनी भग ॥१.!!