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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ १९ मृगावुनचरितवर्णनम् अपर च- मूलम् -- वला सडासेतु डेहि, लोहतुंण्डेहि पक्सिभि । वित्तो विलंबतोsहं, ढग डाया=-लात् सन्दशतुण्डे, लौण्डे, पक्षिभि. । विलुतो विलपन्न, दरनन्त ॥५८॥ तो ॥५८॥ ५२९ टीका--'बला' इत्यादि । अति । नरके सन्दशतुण्डे = सन्दगाकार तुण्डमुख येषा ते तथा तै, सन्दशाकारमुख, लोहतुण्ड. हत्कठोरमुखै ना मकैः पक्षिभिर्निम्पन्= विलाप कुन्नहला हठात् अनन्तश अनन्तवार विलुम'= विच्छिन्नः । नरकेषु पक्षिणो वैकियाएन । तर परिणामभावात् ॥५८॥ एव कर्त्यमानस्य पिपासाया सजाताया यदभूत्तदुच्यतेमूलम् -- तण्ही किंलतो धावतो, पत्तो वेयरणि नंड | जलं पाहति चिंततो, खुरधाराहि विवाइओ ॥ ५९ ॥ अपर च- - 'ला' इत्यादि । हे माततात' नरकम ( सडासतुडेटिं - सन्दशतुण्डैः ) सडासी के आकार समान मुखवाले तथा (लोहतुण्डेहिं - लौह तुण्डै) लोह के समान कठोर मुम्बपाले ऐसे ( ढक गिद्धेहि - ढगृद्वै ) ढकटद्ध नामक पक्षियो द्वारा (विलवतोse - विलपन् अहम् ) विलाप करता हुआ मै (अणतसोअनन्ता) अनतवार (विलुत्तो - विलुप्त ) दिन्नभिन्न किया गया है । नरको मे पक्षी नही होते हैं । नारकी ही स्वय क्रियशक्ति से पक्षी जैसे बन जाते है ॥५८॥ भीलु पशु - "चला" इत्यादि श्यन्वयार्थ–हे भातापिता । सडास तुठेहि-सन्दश तुण्डै. साधुसीना आर रेवा भोढावाजा तथा लोहतुण्डे हिं- लौह तुष्टै बोढाना वा ठोर भोढावाजा सेवा ढक गिद्धेहि ढङ्कगृद्धै शृद्ध नामना पक्षीओ द्वारा विलवतोऽह - विलपन् जहम् विसाय ४री रहेस मेव। डु अणतसो - अनतश मनतर विलुत्तो- विलुप्तः छिन्न ભિન્ન કરાયેલ છુ નરકામા પક્ષી હાતા નથી નારકી જ સ્વયં વૈક્રિય શકિતથી पक्षी ने मनी लय है ॥ १८ ॥ १७
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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