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________________ प्रियदगिनी टीका अ. १९ मृगापुनचरितपणनम् पुनरपि श्रामण्यदुष्करता प्रदर्शयतिमूलम्- काबोया जो इमा वित्ती, केसंलोओ यं दारुणो। दुख बभव्वय घोर धरि अमहर्पणा ॥३३॥ छायाकापोती या इय गृत्तिः, केशगेचश्च दारुण' । दुःर ब्रमनत चोर, धारयितुममहात्मना ॥३३॥ टीका-'काचोया' इत्यादि। सापना या इय गृत्तिा-सयम याा निर्वहणोपायरूपा सा कापोती-कपो ना'-पक्षि विशेपास्तपामिय सापोती, कापोती-इन कापोती, पोततितुल्या। यथा पोता नित्यशङ्किताः स्वाहारग्रहणे मात्तन्ते, कृताहारास्ते द्वितीय दिव साथ न फिमरि सहन्ति । यावतोदरपूर्तिभवति, तावदेव गृहन्ति । एत्र मेव सारवोऽप्येपणाटोपेभ्यो नि य गङ्कमाना आहारग्रहणे प्रवर्तन्ते । जाहार है। इनको ममतापूर्वक माधु को सहन करना चाहिये । नहीं तो वह माधु नहीं है। यदि योडी टेरके लिये मान लिया जाय कि ये बाते माधुअवस्था में मर के माय घटित नहीं हो सकती हैं तो भी भिक्षाचर्या तो सरको करनी ही पड़ती है। यह क्या कम दुखकी यान है ? इसी तरह याचना करना तथा याचना करने पर भी मागी हुई वस्तु नहीं मिलना यह तो और भी अधिक कष्ट है । अतः बेटा । इस साधु बनने के आग्रह को छोड दो। इसके होने में बडे दु ग्व है ॥३२॥ फिर भी श्रामण्य की दुफरता दिग्वलाते हैं-'कावोया' इत्यादि। अन्वयार्थ--माधुजनों की (जा-या) जो (इमा-डयम्) यह सामयात्रा के निर्वहन के उपायरूप (कायोया-मापोटी) कापोती (वित्ती-वृत्ति) वृत्ति है यह बडी दाम्ण है।तपा(केसलोओय दारणो-केशलोचश्च दामण) વાર માટે એમ માની લેવામાં આવે કે આવી બધી વાતે સાધુઅવસ્થામાં સઘળાને બનતી નથી, પર તુ ભિક્ષાચર્યા તે બધાએ કરવી જ પડે છે એ શુ ઓછા ૬ ખની વાત છે ? આ પ્રમાણે યાચના કરવી અને યાચના કરવા છતા પણ માગેલી વસ્તુ ન મળે તે અતિ દુખદ છે, માટે હે બેટા! આ સાધુ બનવાના આગ્રહને કેડી દે કારણ કે સાધુ બનવામાં ભારે દુ ખ છે ૩૨ छ। पशु श्रीभएयनी दु२ता मताव छ-~"कावोया" त्यादि २-याथ-साधुजनानी जा-या २ उमा-इयम् मा सयभयात्राना निवा हुना 6414३५ कावीयावित्ती-कापोतीवृत्ति पति वृत्ति छे ते मृम डीन छ तथा केसलोओय दारुणो केशलोचश्च दारुण. कोने-उशने मेवा
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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