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________________ 4 . प्रियदर्शिनी टीका १९ मृगापुनचरितवर्णनम् ४८२ तथा-रोगाव-नरादयोऽपि दुस-तथा-मरणानि च दुम्य । अहो । दति खेदे, अहो ! यन-गतिचतुष्टयात्मके यस्मिन् ससारे जन्तव एवं क्लिश्य न्ते हेग प्राप्नुवन्ति, स ससारो हु-निश्चयेन दु.ख. नितान्तदुःखावहः ॥१५॥ मि च-- मूलम्--खित्त वत्थु हिर॑ण्ण , पुर्सदार चं वर्धवे । चहत्ता ण ईम दे ह, गतवमवसस्स मे" ॥१६॥ छाया-क्षेत्र वास्तु हिरण्य च, पुनदार च पान्धवान् । त्यत्तया खलु दम देह, गन्तव्यमवशस्य मे ॥१६॥ टीका--'वित्त' इत्यादि। हे मातापितरो ! क्षेत्र वास्तु-गृहाहादिकम् , चम्पुनः हिरण्य-सुवर्ण, तथा-पुनदार-पुनाश्च दाराश्थेति समाहारद्वन्द्व । च-पुन पान्धवान्-भ्रातुन् चीत नहीं करते है अधिक क्या कहा जाय-अपने जीवन के सुख दुग्वकी साथी अपनी पत्नी भी मेवा शुश्रूया करना छोड देती है। अरे । और तो क्या औरस-सगा-पुत्र भी अपमान करने लग जाता है । इन दुःखों के अतिरिक्त (रोगा-रोगा) रोग भी इस अवस्था मे ज्यादा सताया करते है अन' ये भी दुग्य ही है। (मरणाणि-मरणानि) मरण भी एक दुःख है । इस से यह निश्चित है कि (ससारो ह दुक्ख-ससारो हु दुःखम्) यह चतुर्गति रूप ससारसयो दुःख ही हैं। (जत्य-यत्र) जिसमे (जतुणो कीसति-जन्तवः हिश्यन्ति) प्रत्येक जीव दुग्व ही पाते रहते है। अर्थात यह चतुर्गतिरूप ससार स्वय एक दुग्व है। इसमें रहने वाला कोई भी भाणी सुग्व नहीं पाता है। इसमे जन्म, जरा मरण एव रोग ये सय दु.ख हि दुःख है ॥ १५ ॥ વધારે શું કહેવામા આવે, પિતાના જીવનની સુખદુ ખની સાયી એવી પિતાની પત્ની પણ સેવા સુશ્રષા કરવાનું છેડી દે છે અરે ! વધારે તે શુ પિતાને રસ -मग पुत्र ५९५ मपमान ४२ लागी तय छ माया त रोगा-रोगा: રેગ પણ આવી અવસ્થામાં વધારે સતાવ્યા કરે છે આથી એ પણ દુ ખ જ છે, मरणाणि-मरणानि भ प ४ ५, माथी से बात तो निश्चित छ । यतुगति३५ ससा स मय छ जत्थ-यत्र मा जतुणो कीसति-जन्तव. હિતિ પ્રત્યેક જીવ દુ ખ ભોગવ્યા કરે છે અર્થ-આ ચતુર્ગતિરૂપ સ સાર પોતે જ એક દુ ખ છે આમાં રહેનાર કઈ પણ પ્રાણ સુખને પામતા નથી આમાં जन्म, १२, भरण, गनेशग मा सधान ॥ १॥॥
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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