SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 582
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७३ उत्तराध्ययनम निर्विष्ण पामः कामेभ्यो मनन्दादिभ्यो निर्मिणो रिरक्कोडर महार्णवाद= महार्णव ससार परित्यन्य, पोपेऽत्र पचमी' मनजित्यामि=मोक्षप्रदायिनी racter acterfer aana मनुमन्यम् । यी हि भविष्यद् दुख न जानाति, वाताना तत्तीकार न जानाति स वाचि दित्यमेवासीत् । अह मयाऽपि ति इति कप न दुःरामतापायभूता महानात्मिकाव्या स्वीकरिष्ये इति त्राशय ॥१०॥ यदि मातापित भोगरूप निमन्त्रयेतामतस्त निषेवार्थमाह-मूलम् -- अम्मतीय। मेए भोगी, भुत्ता विसफलोबमा । पच्छा कडुयँविवागा, अणुवन्दुहावहा ॥११॥ छाया -- अनातात । मया भोगा, मुक्तारिफोरमा । पश्चात्कटुकविपारा, अनुवन्धदुग्यावहाः ॥११॥ टीका- 'अम्मताय' इत्यादि । tafat 1 freफलोपमा. -रप-निपक्षस्तस्य फलेन उपमा=सा दृश्य येषा ते तथा, आपातमधुरविपफल्तुल्या', पश्चात् अनन्तर कटुविपाका चाहता। इसलिये आप लोग मुझे (अणुजाणर-अनुजानीत ) इसके लिये आज्ञा प्रदान करें । H भावार्थ - मृगापुत्र ने कहा हे माता में चतुर्गति रूप इस ससार समुद्र के दुग्वो से भी परिचित ह तथा उनकी निवृत्ति के उपाय से भी । अतः मेरी इच्छा इस ससार में अब रहने की नहीं होती है । में इससे निकलना चाहता है । अत में चाहता कि आप लोग इस के लिये मुझे आज्ञा प्रदान करे ॥ १० ॥ मातापिता के भोगों के लिये उप निमत्रण करने पर भोगों का जिप्यामि दीक्षा सेवा याहु छु भाई आप सौ भने अणुजागर-अनुजानीत से માટે આજ્ઞા અપા ભાવાથ—મૃગાપુત્રે કહ્યું કે, હું માતા 1 ચતુતિરૂપ આ સસારના દુખે થ હુમ રો રીતે પરિચિત છુ તથા તેની નિવૃત્તિના ઉપાયથી પણ રાંચત છુ માંથી મારી ઈચ્છા હવે આ સ સારમા રહેવાની ની હુ એમાર્થી નીકળવા ઇચ્છુ છુ આથી વિનતી કરૂ છુ કે, આપ લેકે આ માટે મને આજ્ઞા આપે! ॥૧૦॥ માતા પિતાએ ભાગાના માટે આગ્રહ કરવાથી ભેગાનો નિષેધ કરીને મૃગા पुत्र हे छे -- " अम्मताय" त्याहि !
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy