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________________ १२९ प्रियदर्शिनी टीका अ. १८ क्रियावाद्याविमतप्रतिपादनम् 'पिरिय' इत्यादी प्राकृतत्वान्नपुमकत्वम् । तथा-अतान वस्तुतत्वाननगमः, इत्येव रूपैरतैः स्वस्वाभिप्रायकल्पितैश्चतुर्मिः स्थान =हेतुभिः मेयनाः मीयते इति मेयम् -जेय जीवादिवस्तु तजानन्तीति मेयज्ञा =स्यपाभिमायपरिकल्पितवस्तुम्वरूपाः सर्वसिद्धान्त रहितिन कुतीथिका इत्यर्थः । सिंकुत्सित प्रभाषन्ते कृत्मि तत्वमेषा सयुक्तिवजितवान् । तथाहि-क्रियागरादिनो यद्यप्यात्मान सत्ता प्रति पन्नास्तथाऽपि ते आत्मनि एकान्ततो विभुत्वाविभुत्वकर्तृत्वार्तृत्वमूर्त्तत्वामूर्तत्वा दिक मन्यन्ते । तत्र आत्मनो विभुत्व-यापकत्व न सगन्छते, शरीर एव लिङ्गभूत चैतन्योपलये। (अन्नाण-अज्ञानम्) वस्तुतत्व का अनवगम (प्तेहि चउहिं ठाणेहि-तैः चतुर्भि स्थान ) दन चार स्थानो द्वारा अपने • अभिप्राय से कल्पित इन चार हेतुओ द्वारा (मेयन्ने-मेयजा ) अपनी २ बुद्वि के अनुसार जिन्हों ने वस्तुका स्वरूप परिकल्पित किया है, मर्वज्ञ के सिद्धान्त के अनुसार जीवादिक पदार्थों के स्वरूप को जो नही मानते हैं ऐसे सर्वज्ञ सिद्धान्त से बहिष्कृत कुतीधिक जन (किपमाप्तड-कि प्रभापन्ते) कुत्सित ही तत्वों की प्ररूपणा करते हैं। कारण कि उनका जो कुछ भी कथन है वह सत् युक्तियों से सर्वथा वर्जित एव मनगढन्त है। क्रियावादियों का ऐमा कहना है कि आत्मा है तो सही परन्तु एकान्त से विभु भी है अविभु भी है कर्त्ता भी है अकर्ता नी है, मर्तिक भी है अनतिक भी है। परन्तु ऐसी ये मान्यता ठीक नही हैं कारण के शरीर मे ही आत्मा के लिङ्गभूत चैतन्य की उपलब्धि होने से आत्मा मे व्यापकता घटित नहीं होती है। सघणाने नभ२४१० वा३५ विनय मने अन्नाण-अज्ञानम् वस्तुतत्पनु ज्ञान एतेहि चउहि ठाणेहि-एते चतुर्भि' स्थान 20 य २ स्थानो मेयन्ने-मेयना પિતાપિતાની બુદ્ધિ અનુસા-જેઓએ વસ્તુનું સ્વરૂપ પરિલ્પિત કરેલ છે સર્વજ્ઞના સિદ્ધાંત અનુસાર જીવાદિક પદાર્થોના સ્વરૂપને જે નથી માનતા એવા સર્વર સિદ્ધાન थी परिष्कृत युतिया 11 किं पभासइ-किं प्रभाषन्ते पुत्सित तत्वानी प्र३५। કરે છે કારણ કે, તેમનું જે કાઈ પણ કહેવાનુ હે ય છે તે સતયુક્તિથી સર્વથા વજત અને મનથી ઉપજાવી કાઢેતુ છે કિયાવાદીઓનું એવું કહેવાનું છે કે, આત્મા છે તે ખરે, પરંતુ તે એકાન્તથી વિભુ પણ છે, અવિભુપણ છે કર્તા પણ છે, અકર્તા પણ છે, મત્તિક પણ છે, અમૂર્તિક પણ છે પરંતુ એવી એ માન્યતાઓ ઠીક નથી કારણ કે, શરીરમાં આત્માના નિ ગભૂત ચિતવની ઉપ4િ થવાથી આત્મામા વ્યાપકતા ઘટિત થતી નથી १७
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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