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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ. १८ सजयनृपमुनिदर्शनम् ११३ शीघ्रम् आगत्य हतान् मृगान दृष्ट्वा तु पुनः तत्र गर्दभालिम् अनगार=पश्यति ।।६। तथा मूलम् -- अहं राय तत्थं संभतो, अगारो मणा हओ " । मद - मए ॐ पुन्ने, रसगिद्धेणं घिणा ॥७॥ उँ १ छाया---अथ राजा तत्र सभ्रान्त जनगारी मनागाहन' मया तु मन्द्रपुण्येन, रमन पातुकेन ||७|| टीका- 'अ' इत्यादि । अथ=अनन्तर तत्र=तस्मिन् मुनो टूटे सति सभ्रान्त = मयनस्त' स राजाएवमचिन्तयत्-मन्दपुण्येन = पुण्पहीनेन रसटद्धेन = रसलोलुपेन घातुकेन = जीवहननशीलेन मनार = मृगयारूप निर्धक कार्य कुर्वता मया एप अनगारो त = मारितस्तदीय मृगननात् । परमकारुणिका. माधवो हि परदु खेन दु खिता भवन्ति ॥ ७॥ अश्वगत ) घोडे पर चढ़ा हुआ (मो राया-म राजा) वह राजा (विप्पम् - क्षिप्र) शीघ्र ही ( तहिं - नत्र ) उस स्थान पर ( आगम्म - आगम्य) आकर (हम मिण्ड पामित्ता - हतान मृगात् दृष्ट्वा ) मरे हुए मृगोको देखने लगा | इतनेमे ही (तत्थ अणगार पास तत्र अनगार पश्यति) उसकी दृष्टि एक मुनिराज पर पडी जो वही बैठे हुए थे ॥३॥ तथा-- - 'अह राया' इत्यादि । अन्वयार्थ - ( अह - अथ ) इसके बाद (तत्थ - तत्र) उन मुनिराज के दिवने पर ( सभतो -सभ्रान्त) त्रस्त ( राया - राजा ) राजाने ऐसा विचार किया कि - मुनिराजके मृगोको मार देनेसे (मदपुन्नेण-मदपुण्येन) पुण्यहीन (रमगिद्वेण - रसगृद्धेन) तथा रसलोलुपी मुझ (घिणा घातुअश्वगत, घोडा (५२ २थयेस सो राया-स राजा ते राम विप्प- प्रिम् शीघ्र तर्हि तन मे स्थान पर आगम्म - आगम्य भाव्या मने खावीने हिए मिएउ पासित्ता - हतान् मृगान् दृष्ट्वा भरेसा भृगोने लेवा माझ्या या समये से तत्थ अणगार पास - तत्र अनगार पश्यति लताभ उपमा मेठेसा मे भुनिगण ઉપર એની છી ગઈ કા तथा - 'अह राया' इत्यादि । मन्वयार्थ–अह—अथ त्याछो तत्थ-तत्र या मुनिराज पर दृष्टि परता समतोसभ्रान्त भयत्रस्त राया- राजा मे रामना हिसभा मेड अारनु मेवु टु अन्भ्यु है, मदपुन्ने-मदपुण्येन भे पुण्यदिन तथा रस गिद्वेण-रसगृद्धेन सोचविणायातुकेन घात ठेवण या भृगोने नथी भार्या परतु मणा मनाक् व्यर्थन मा
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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