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________________ उत्तारध्ययनसूत्र सम्प्रति चारित्राचार प्रमादिनमाह-- मूलम्--सम्ममाणे पाणाणि, वीयाणि हरियाणि यें । __असजएं संजयमन्नमाणो, पावसमणे-ति बुच्चंड ॥६॥ छाया--समर्दयन् माणान्, पीजानि हरितानि च । असयत सयत मन्यमान , पापश्रमण इत्युच्यते ॥६॥ टीका--'सम्मदमागे' इत्यादि । प्राणान् पाणिनो-दोन्द्रियादीन, पीजानिगाल्यादीनि, हरितानि र्ग दीनि, उपलभगत्यात सर्वाण्यप्ये केन्द्रियाणि च सम्गर्दयन चरणादिभि पाडयन , अतएर-असयता-सयतभापनित', तथाप्यात्मान सयत मन्यमानो योऽस्ति, स पापश्रमण इत्युच्यते । ६॥ (यद्वे-स्तब्ध.)जो अहकार मे ही मम्त बना रहता है वह मुनि पापत्रमण है, अर्थात् दर्शनाचार मे शिथिल होने से यह सायुके कर्लन्यसे बहुत दूर है वास्तविक साधु नही है ॥०॥ अब चारित्राचार मे प्रमाद करनेवाले का स्वरूप कहते है'समद्दमणे' इत्यादि अन्वयार्थ-जो साधु (पाणाणि वीयाणि सम्ममाणे-प्राणान् बोजानि समईयत्) होन्द्रियादि जीवोंको, शाली आदि बीजोकों, दूर्वादिक हरित अकरोंको तया उपलक्षणसे समस्त एकेन्द्रित जीवोको चरण आदि द्वारा पीडित करता हुआ (अमजए-असयत ) मजमभावसे वर्जित हो रहा है, फिर भी अपने आपको जो सयत (मुनि) मान रहा है ऐसा वह सायु पापश्रमण कहलाता है ।।६।। प्रयए-अप्रतिपूजक पाताना 6५२ ५४१२ ३२वावा भुनिशान पर प्रत्यु ५४२ ४रता नथी मने थद्धे-स्तब्ध, २ मारमा ४ मस्त मनान रहेछ ते મુનિ પાપશ્રમણ છે અથa-– દનાચારમા શિથિલ હોવાથી તે સાધુના કર્તવ્યથી ખૂબ દૂર છે વાસ્તવિક સાધુ નથી પા हवे यास्त्रिाधारमा प्रभार ४२वावाणानुस्१३५ -"समदमाणे" त्यादि। __मन्वयार्थ - साधु पाणाणि पीयाणि सम्ममाणे-माणान वीजानि समर्दयन् બે ઇન્દ્રિયવાળા જીને, ડાગર આદિ બીજેને, દુર્વાદિક હરિત અકુરાને તથા ઉપ सक्षथी समरत थेन्द्रिय ७वाने य२ मा द्वारा पी31 पडायाडी असजएઅસર સ યમ ભાવથી વર્જત બની રહેલ હોય તેમ છતા પણ પિતે પોતાની જાતને સ યત માની રહેલ હોય એવા તે સાધુ પાપભ્રમણ કહેવાય છે દા
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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