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________________ ९६२ - प्रियदर्शिती टीका अ २३ श्रीपार्श्वनाथचरितनिरूपणम् सम्पमार्गव जिनमणीतधर्म एवेति नपम प्रश्नः ९। तस्यैव सन्मार्गव ग्यापनाय महोदकवेगनिवारणविपये तग धर्म हतोत्पादनाय समाररूप ममुद्रपारगमनविपये दगम प्रश्न.। अब यदि जिनप्रणीतधर्मएव सम्यड् मार्गम्तर्हि किमन्येऽपि न तथा बदन्तीत्याशङ्कर तेपामज्ञवण्यापनार्य तमोरिघटनविपये एकादश प्रश्न. ११ । एपमपि किमनेन सम्यमार्गेण मोररूप स्थानप्राप्तः समारनाऽस्ति ? इति पदानिरासाय म्पानविषये द्वादशः प्रश्नः १२ । एर द्वादशाना प्रभाना समन्धयो यो यः ॥८४|| को स्वाभिमत मोक्षरूप पद की प्राप्ति नहीं हो सकती है इसलिए सम्यक मार्ग के विषय में "कुप्पहा" इत्यादि से अष्टमप्रश्न किया गया है ॥८॥ वह मभ्यतमागे जिन प्रणीत वर्म को ही हो सकता है अन्य नहीं इस विषय स्पट करने के लिये 'महाउदगवेगेण' इत्यादि से नवम प्रश्न किया गया है।९। जिनमणीतवर्म मे ही सन्मार्गता है यह त्यापन करने के लिये तथा उसी में महोदक वेग को निवारण करने की शक्ति है इस बात को यताने के लिये तथा उसी धर्म मे दृढता धारण करनी चाहिये क्यो कि रही ससारख्प समुद्र से पार कराने मे शक्त है इन बात को प्राप करने के लिये यह 'अण्णवसि' इत्यादि से दशमा प्रश्न किया गया है।२०॥ 'अधयारे' इत्यादि से ग्यारहवा प्रश्न यह स्पष्ट करता है कि-जिन प्रणीत चर्म ही एक सम्यक मार्ग है परतु अन्य तीर्थिक जन इस विषय को जो नहीं मानते है, सो उनकी यह अज्ञानता है । उनका यह अज्ञान रूप तम इसी मार्ग के आश्रयण करने से नष्ट हो सस्ता है ।११॥ प्राप्ति थ शती नयी माथी सभ्य भागना विषयमा “कुप्पहा" इत्याहिया આઠમે પ્રશ્ન કરેલ છે ૧૮ તે સમ્પક માર્ગ ન પ્રણીત ધમ જ હોઇ શકે છે ___ माल नही मा विषयने २५ट ४२।। माटे “महा उदगवेगे" या स्थानमा પ્રશ્ન કરેલ છે લ જીત પ્રણીત ધર્મમા જ ભાગંતા છે આની સ પૂર્ણ સમતિ માટે તથા એમ જ માદક વેગનુ નિવારણ કરવાની શકિત છે આ વાતને બતાવવા માટે એક જ ધર્મમાં દઢતા ધારણ કરવી જોઈએ કેમકે, તે સ સાર સમુદ્રથી પાર ४२११वामा शतिजी छ या पातन पुट ४ ५। भाटभ "अण्णवतियारिया सभी प्रश्न वामा आवद छ ॥१०॥ "अययारे" त्या हिथी अभयारम। प्रन એ સ્પષ્ટ કરે કરે છે કે, જીનપ્રણીત ધર્મ જ એક સમ્યક્ માર્ગ છે પરતુ અન્ય તીર્થિક જન જેઓ આ વિષયને માનતા નથી તે એમની અનાનતા છે એમનું આ અજ્ઞાન રૂપ તમ (અ ધારૂ) આજ માગને આશ્રય કરવાથી નષ્ટ થઈ શકે છે ૧૧
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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