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________________ ૨૪ उत्तराध्ययन सूत्र राग द्वेष, शतस्तद्रूपपादनविपय चतुर्थ मनः । नापि लाभ एक दुरन्तः, जतो लोभस्प तोडेनरिये पञ्चमः प्रश्न ५ स्पोन्दोऽपि न पायरूपाग्निनिर्वाण दिना समरति, अताऽग्निनिर्वाणपये पष्ठ मन. ६ | तन्निर्वापण मनस्यनिगृहीते न सभवति, श्री दुष्टाश्वनिग्रहविये सप्तम' प्रश्न ७ | मनोरूपदृष्टाश्वनिग्रहे कृत्येऽपि सम्यद्मार्गपरिज्ञान विना न सभ पति स्वाभिमतमोक्षरूपपद प्राप्तिरिति सम्यद्मार्गविषये अष्टमः ८| है अत तृतीय मन 'अणेगाणमरस्माण' इत्यादि से भाव ग जय के विषय मे किया गया है | |३| शत्रुओंम सब से माल शत्रु इस आत्मा के लिये उन पाय तथा रुपायात्मक रागक्षेप ह, इसलिये छेदन के विषय मे 'दीसति' इत्यादि में चतुर्थ प्रश्न हुआ है |४| लोभ कपाय दुरन्त है इसलिये पचम मन में इम लोमरूप कपाय को उखाउने की यात 'अतो हिययमभूया' इत्यादि से पी गई है || लोन स्पायस उच्छेद भी पाप अग्नि के निर्वापण विना समर्पित नही होता है इसलिये पष्ठ प्रश्न मे अग्नि के रूपक द्वारा उसके निर्वाण के विषय मे 'सपज्ज लिया य' इत्यादि से प्रश्न किया गया है | |३| अग्नि का निर्मा पण जब तक मन निगृहीत नही होता है तबतक नही हो सकता है इसलिये मनरूप दुष्ट अश्व के निगृह के विषय में 'अय साहसिओ' इत्यादि से सप्तम प्रश्न हुआ है |७| जबतक भले मार्ग का परिज्ञान नही हो जाता है तक मनरूप दुष्ट अन्व का निग्रह होने पर भी जीवो शुता नथी साथी त्रीले प्रश्न “जणेगाणसहस्साण" इत्याहिथी लाव शत्रु नयना વિષયમા કરાયેલ છે !! શત્રુઓમા સહુથી પ્રબળ શત્રુએ આત્મા માટે ઉત્કટ उपाय तथा उपायात्म राष है आा अरो छेहना विषयमा 'दीसति' इत्यादि । ચેાથેા પ્રશ્ન યેલ છે ।૪ા લાભ કષાય દુરન્ત છે, આ કાન્તે પાચમા પ્રશ્નમાં આ सोल ३५ उपायने उजेडवानी वात "अतो हिययसभूया" त्याहिथी पूछनाभा આવેલ છે !પા લેાભ કષાયને ઉચ્છેદ પણ કષાય રૂપ અગ્નિના નિર્વાણુ વગર સભ વિત હાતા નથી આથી છા પ્રશ્નમા અગ્નિના રૂપક દ્વારા તેના નિર્વાણુ પણાના विषयभा " सपज्जलिया य" धत्यादिथी अश्न ४२वामा आवे छे। अग्निनु निर्वाच જ્યા સુધી મન નિગ્રહિત થતુ નથી ત્યાં સુધી થઈ શકતુ નથી. આ કારણે મન રૂપ દુષ્ટ અત્રના નિગ્રહના विषयभा " अय साहसिओ " हत्याहिया સાતમા પ્રશ્ન થયેલ છે જ્યા સુધી સીધા માર્ગનું પરિજ્ઞાન થઈ જતુ નથી ત્યા સુધી મનરૂપ દુષ્ટ અશ્વને નિગ્રહ થવા છતા પણ જીન્નેને સ્વાભિમત મેાક્ષરૂપની
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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