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________________ ७४४ मूलम् उत्तरायपनर समादाय 'चित्रसभूतौ' इति निदशः। ती एकैकस्य परस्परस्य मुखदुःखफलविपाक मुकवदुष्फतफलविपाक कथयतः । जन पर्वमाननिर्देशस्तकालापेक्षया ।।३।। तत्र सभूतनीपचक्रपर्ती व्रत्मदत्तौधिनीय मुनि यदाद, तदुच्यते गावा चतुष्टयेन चकवट्टी महिडीओ, वंभदत्तो महाजसो। भायर वहुमाणेणं, इम वयर्णमव्वी ॥४॥ छाया-चक्रवर्ती महर्दिको, ब्रह्मदत्तो महायशाः। भ्रातरं बहुमानेन, इद पचनमनीम् ॥ ४ ॥ टीका-'चफरही' इत्यादि महर्दिकः = सर्वोत्कृप्टसद्धिसम्पन्नः पट्खण्डाधिपतिरित्यर्थः, महायशाः महद् यशो यस्य स तथा, भुपनत्रयव्याप्तयशाचक्रवर्ती ब्रह्मदत्तो वहुमानेन-अस्या और (ते-तौ) इन्होंने (इकमिकरस-एकैकस्य) परस्पर में (सुहदुक्ख फलविवाग कहति- सुखदु खफलविपाक कथयतः) पुण्यपापके फल के विपाफकी कथा की। यहां गाया में चित्र-सभूतके नामसे जो कहा गया है वह पूर्वभवके नामकी अपेक्षासे जानना चाहिये ॥३॥ __इस विषय मे ससार के जीव चक्रवर्ती ब्रह्मदत्तने चित्रके जीव मुनिराजको क्या कहा यह यात चार गाथाओं द्वारा सूत्रकार प्रकट करते हैं 'चकवट्टी' इत्यादि। ___ अन्वयार्थ-(मड्डिीओ-मद्धिकः) सर्वोत्कृष्ट ऋद्धि सपन्न-पट्खडके अधिपति (महाजसो-महायशाः) भुवनत्रय में व्याप्त यश सपन्न ऐसे (चक्कवट्टी वभदत्तो-चक्रवर्तीब्रह्मदत्त)चक्रवर्ती ब्रह्मदत्तने (बहुमाणेण बहुमानेन) इक्कमिकरस-एकैकस्य ५२२५२मा सुदुक्खफलविवाग कहति-सुखदु ख फलविपाक ચત પુન્ય તથા પાપના વિપાકની કથા કહી અહી ગાથામા ચિત્ર-સભૂતના નામથી જે કહેવામાં આવેલ છે તે પૂર્વભવના નામથી અપેક્ષાએ કહેવાયેલ છે તૈમ જાણવું જોઈએ છે ૩ * આ વિષયમાં સસારના જીવ બ્રહ્મદત્ત ચકવર્તીએ ચિત્રના જીવ મુનિરાજને शुरू से वातार गाथाय द्वारा सूत्रधार प्रगट ४३ छ "चकवट्टी"-Vत्या स-पयार्थ:-महिड्डीओ-महर्द्धिक सवाइट शिद्ध सपन-पम उना साथ पति महाजसो-महायशा त्रए सुनमानी मोसमाती वा यश पामा चकवट्टी बभदत्तो-चक्रवती ब्रह्मदत्त प्रात्त यता बहुमाणेण-बहुमानेन
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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