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________________ पोयूपषिणो-टीका सू ५६ भगवती धर्मदेशना १ पाणाइवाए, २ मुसावाए, ३ अदिण्णादाणे, ४ मेहणे. ५ कलापपरिवर्जिता । 'अत्यि पाणाइवाए' अस्ति प्राणातिपात -प्रागा =उच्छ्वास नि श्वासादयन्ते गामतिपात =नियोजन-प्रागातिगत -प्रागिहिंसनमिति यावत् , तदुक्तम् पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविध रल च, उच्झासनि श्वासमयान्यदायु । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ता-स्तेपा वियोगाकरण तु हिंमा ॥ १ ॥ इति । 'अत्यि मुसावाए ' अस्ति मृपावाद -मृपा-मिथ्या, वाद =वरनम्-अमद्भतार्थम्भाषणमिति यावत् । 'अदिण्णादाणे' अदत्ताऽऽानमस्ति-न दत्तमदत्तम् देवगुरभूपगाथापतिसाधर्मिकैरननुनात, तस्याऽऽदान-ग्रहणम् । 'अत्यि मेहुणे' अस्ति मैथुनम्-मिथुनेन स्त्रीपुसाम्या निवृत्त कर्म भैथुन-कामक्रीडे यर्थ । 'अत्थि परिग्गहे' अस्ति परिग्रह -परि= के कलापों से परिवर्जित ऐसे जीव है । (अत्थि पाणाइवाए) प्रागिहिंसा पाप है, उच्छ्वासनि श्वास आदि प्राग है, इनका अतिपात करना अर्थात् प्राणियां क प्राण का रियोग करना प्रागातिपात है। कहा भा है "पञ्चेन्द्रियाणि विविध वल च उच्छ्वासनि श्वासमयान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिक्तास्तेपा वियोगाकरण तु हिंसा ॥ शास्त्रों में पाच इन्द्रिय, तीन वल, आयु, श्वासोच्छ्यास इस प्रकार से ये १० प्राण भगनानने बतलाये है। इनका वियोग करना इसका नाम हिंसा है। (अस्थि मुसाबाए) मृपावाद पाप है । असद्भूत अर्थ का कथन करना इसका नाम मृपावाद है । (अदिण्णादाणे) अढत्तादान पाप है । देव, गुरु, भूप, गाथापति एव साधर्मिक आदि की कोई वस्तु को उनकी आना के विना लेना सो अदत्तादान है । (अत्थि मेहुणे) मैथुन पाप है । (अस्थि परिग्गहे) परिग्रह भी पाप है । जो मूर्छापूर्वक ग्रहण किया जाय उसका नाम परिग्रह है, अर्थात् णिव्वुया) मधुनरावृत्तिविशिष्ट थवाथी तमाम मतापनी उसापायी परिवरित सेको छ (अत्थि पाणासाए) प्राविहिसा पा५ छ वामनिवास આદિ પ્રાણ છે તેને અતિપાત કરે અર્થાત્ પ્રાણિઓને પ્રાણથી વિયોગ કરે પ્રાણાતિપાત છે કહ્યું પણ છે – “पञ्चेन्द्रियाणि विविध बल च उच्छ्यासनि श्वासमथान्यदायु । प्राणा दशैते भगवद्भिरुकास्तेपा वियोगीकरण तु हिसा ॥ શાસ્ત્રોમા પાચ ઇન્દ્રિય, ત્રણ બલ, આયુ, શ્વાસોચ્છવાસ આ પ્રકારથી ૧૦ प्राय सापाने मताच्या छ तना दिया। ४२३। तेनु नाम हिमा छ (अस्थि मुसावाए) भृषावा पा५ छे असहभूत अर्थनु उथन २७ ते भृपावाइ छ (अदिण्णादाणे) महत्ताहान पा५ छ ३१, शुरु, भूप, मायापति तेभर साथ મિડ આદિની કઈ વસ્તુને તેમની આજ્ઞા વગર લેવી તે અદત્તાદાન છે
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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