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________________ औपपातिकको स्थामा, सीहा डर दुरिसा, वसुधग इव मयफासविसहा, सुहुयहुयासणी इव तेयसा जलंना ॥ मू० २७॥ इत्यर्थ । 'सीहो इस दुद्धरिसा 'मिर इस दुर्दगा मिसपनिमगध| इयर्थ । 'वसुधरा इस सबफासरिसा ' यमुधग र सम्पानिपग-गृथ्वी यथा मा सा मसह्य वा स्पर्श सहते समहति चो यत तयत सामोऽपि जनुन प्रतिहल्पीपहोपमग सुसहा भवति। मुहयद्यासणो इस तेयसा जग्ता' मुतातागन डर तेजमा ज्वलन्त सुहुत मुटु हुत-घृताचाहुतिभिस्तर्पितो यो हुताशनो बद्रि -तद्वत्तेजसा-तपसयमतेजसा ज्वल तो टीप्यमाना इति भाव ।। अन उपमानसमाहरुम् इद गायादयम् --~' कसे १ मपे २ जाये ३, जचे कणगे य ? आरिसे ५। कुम्मे ६ पुस्खरपते ७, गयणे ८ अगिले ९ य च १० सरे य ११॥ सागर १२ विहगे १३ मटर १४, सारयसलिल च १५ ग्यग्गी य १६ । भारडै १७ गय १८ वसह १९, सीह २० वसुधरा २१ सुहुयहुए २२॥ २॥ इति ॥ सू० २७ ॥ समान ये बलिष्ठ थे। (सीहो इव दुद्धरिसा) सिंह के समान ये दुर्धर्प थे। सिंह जैसे मृगादिकों से अप्रधृष्य होता है, उसी प्रकार मृग जैसे परीपहाडिको से ये भी चलितचित्त नहीं होते थे। (वसुधरा इव सवफासविसहा) पृथिवी के समान सर्वस्पर्शसह थे। पृथिवी जिस तरह सहने योग्य अथवा नहा सहन करने योग्य ऐसे भी स्पश को सहती है उसी प्रकार ये मुनिजन भी अनुकूल एव प्रतिकूल परीपहों के उपनिपात को अच्छी तरह सहन करते ये (सुहयहयासणो इव तेयसा जलता) मुहुत अग्नि की तरह ये तप और सयम के तेज से देदीप्यमान थ ॥ २७॥ रिसा) सहनावा तसा दुध हा सिभ भृग रातिया ५५ ધષ્ય હોય છે તેવી જ રીતે મૃગલમાન પરીષહ આદિથી તેઓ પણ ચલિત वित्त थता नहा। (वसुधग इव सव्वफासविमहा) पृथिवीनी 8 स «ut સહન કરતા હતા પૃથિવી જેમ સહેવા ગ્ય અથવા ન સહન કરવા યોગ્ય એવા પણ સ્પર્શને સહન કરે છે તેવી જ રીતે એ મુનિજને પણ અનુકૂળ તેમ જ પ્રતિકુળ પરીષહોના ઉપનિપાત ને સારી રીતે સહન કરતા હતા (महययासणो इव तेयसा जलता) सुडत मनिनी ४ तेया तपसने सयमन। તેજથી દેદીપ્યમાન હતા (સૂ૦ ૨૭)
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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