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________________ पीयूषपषिणी-टीका सू २६ भगवदन्तेयासियर्णनम् . समत्तगणिपिडगधरा सबक्खरसपिणवाइणो सबभासाणुगामिणो अजिणा जिणसंकासा जिणा इव अवितहं वागरमाणा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरंति ॥ सू० २६ ॥ येषा ते द्वादशागिन -द्वादशानागमजातार , दादगाऽमजातृत्वेऽपि समस्तश्रुतधरत्व न सिध्यतीत्यत आह-'समत्तगणिपिडगररा'ममन्तगणिपिटकरा गणा-गच्छ ,गुणगणे वाऽस्याऽस्ताति गणी-आचार्य तस्य पिटक इव पिटक सर्वस्वमित्यर्थ , समस्तस्य गगिपिटकस्य धरा धारका । अतएव-'सबक्खर-सण्णिवाइणो' सर्वाऽक्षरसन्निपातिन ,यद्यपि न क्षरति-स्वभावान्न कदाचित्प्र ध्यवते इत्यक्षर पर तत्त्व केवलजानादिरूपम् , तथाप्यत्र अक्षर गदा स्वरव्यञ्जनमेदेन भिने वर्णसमुदाये, ततश्च-अक्षराणा मनिपाता मयोगा स्ववर्गपरवर्ग ममीलनानि-अक्षरसनिपाता , सर्वे चतेऽक्षरसन्निपाता , ते सन्ति येपा तेसवाऽक्षरसन्निपातिन सर्वाक्षरबानमन्त इतिभाव । सबभासाणुगामिणा' सर्वभापानुगामिन -सर्वाश्च ता भाषाः-भापगानि, यद्वा भाष्यन्ते इति भाषा = व्यक्तवचनानि, आसा भापाणा सकृतप्राकृताऽऽदय आर्याऽनार्यादया वहवा भेदा भवन्ति, ता सर्वभाषा अनुगच्छति एव शीला सर्वभापानुगामिन , 'अजिणा' अजिना - असर्वनत्वादिति भाव । जयन्ति कर्मरिपून् इति जिना =सर्वज्ञा , ये जिना न भवति ते अनिना --असर्वज्ञा , तथापि-निनसकासा, जिनमकामा -जिनसदृशा पृष्टनिर्वचनकारिगणिपिटग-धरा) समस्तगगिपिटक के धारक थे । (सव्वक्खरसण्णिवाइणो) यद्यपि केवलज्ञानादिरूप तत्व-अक्षर शब्द से गृहीत होना चाहिये था, परन्तु ऐसा अक्षर यहा गृहीत नहीं हुआ है, कितु स्वर एव व्यजन के भेद से भिन्न वर्णसमुदाय का ही यहा अक्षर शब्द से ग्रहण किया गया है । सन्निपात गन्द का अर्थ सयोग है। ये मुनिजन, सर्व प्रकार के अक्षरों के सयोग से क्या अर्थ होता है, उसके ज्ञाता थे। ( सन्च-भासा-णुगामिणो) आर्य एव अनार्य सन देश की भाषा के ये सब जानकार थे। (अजिणा) ये सर्वन तो नहीं थे पर (जिणसकासा) सर्वज्ञ के जैसे थे। पिट४॥ तमा पा२४ ता (सव्वक्सरसण्णिवाइयो) ने ज्ञान આરિરૂપ તવ-અક્ષર શબ્દથી લે જેતે હતું, પરંતુ એ અક્ષર અહી લેવા નથી, પણ સ્વર તેમજ વ્ય જનના ભેદથી જુદા વર્ણસમુદાયજ અહી અક્ષર શબ્દથી લેવામાં આવ્યો છે સન્નિપાત શબ્દનો અર્થ સ ગ છે એ મુનિજને સર્વ પ્રકારના અક્ષરના સાગથી શું અર્થ થાય છે તેના જ્ઞાતા छता (सव्व भासा- गामिणा) सायं तमः मनाया शनी लापाना तेरा vil on४.२ 'उता (अजिणा) तसा सवज्ञ तो नाता, ५५ (जिणसफासा)
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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