SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पीयूषवर्षिणो-टीका व २४ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १५१ महावीरस्म अंतेवासी वहवे निग्गंथा भगवतो, अप्पेगडया आभिणिवोहियणाणी जाव केवलणाणी, अप्पेगइया मणवलिया G अथवा अतेवासिन - शिष्या ' वहवे' नहन नहुसरायका, 'निग्गया' निर्ग्रन्या प्रयो द्विविध आभ्यन्तरो वालव, तत्र - रुपायातिरूप आभ्यन्तर, धनधान्यादिपरिग्रहरूपो बाह्य, तेन द्विविधेन वाद्याभ्यन्तररूपेग ग्रन्थेन निर्मुक्ता निर्मन्था, अथना ग्रन्थान्निर्गता निर्ग्रन्या -क्रोधादिभिर्घनातिभिश्र मुक्ता इत्यर्थ, भगवत 'अप्पेगइया' अप्येकके--- केचित् ' आभिणिनोहियणाणी ' आभिनिनोधिकज्ञानिन –' अभि' इति आभिमुग्ये, 'नि' इति नैयत्ये, तलथ - अभिमुखो वस्तुयोग्यदेशास्थानाप्रेमी रोध-अभिनिबोध, स एव आभिनिवोधिकम्, स्वार्थे विनयादित्वात् इण् प्रत्यय, कचिस्वार्थिको ऽपि प्रत्यय प्रकृतिं वचनञ्चातिवर्तते, तन अभिनिनस्य पुस्त्वेऽपि आभिनिनोकिय नपुसकत्व, यथा विनय एव वैनयिकम्, आभिनिनोधिक च तजुनानम् आभिनिनोधिकनानम्, तदस्त्येपामित्याभिनिनोधिकनानिन, 'जाव' यानत् ' केवलगाणी' केवलज्ञानिन • केवल - शुद्ध - निर्मल - सकला रणमल कलङ्क निगमसम्भूत नात्, थे, जो (निग्गथा) बाह्य एव अन्तरग परिग्रह के सर्वथा त्यागा थे, तथा ( भगवतो) त्याग एव वैराग्य से जिनका अन्त करण भरपूर था। इनम ( अप्पेगइया ) कितनेक (आभिणिबोहियनाणी) आभिनिनोधिक ज्ञानी थे । जो ज्ञान अभिमुस एव योग्यक्षेत्र में स्थित वस्तु को इंद्रिय और मनकी सहायता से जानता है वह अभिनिनोव है, अभिनननही आभिनिनोधिक है । आभिनिनोधिक ज्ञान का दूसरा नाम मतिज्ञान है । इस ज्ञान से जो युक्त थे वे आभिनिबोधिकज्ञानी कहे गये है । (जाव केवळगाणी ) कितनेक श्रुतनानी थे, कितनेक अवधिज्ञानी थे, कितनेक मन पर्ययनानी थे और कितनेक केवलज्ञानी शिष्या हुता ( निग्गथा ) ने जाह्य तेभन अतरण परिग्रहना सर्वथा त्यागी हता, तथा ( भगवतो) त्याग तेभन वैराज्यथी नेभना मत रागु भरपूर हुता तेसोभा ( अप्पेगइया ) डेटलाये ( आभिणिनोहियनाणी ) मामिनिमोधिજ્ઞાની હતા જે જ્ઞાન અભિમુખ એટલે યાગ્ય ક્ષેત્રમા રહેલ વસ્તુને ઈદ્રિય અને મનની સહાયતાથી જાણે છે તે અભિનિધ છે અભિનય એજ આભિનિષેાધિક છે આભિનિાધિક જ્ઞાનનુ જ ખીજુ નામ મતિજ્ઞાન છે આ જ્ઞાનથી જે યુક્ત હતા તેમનેજ આભિનિએધિજ્ઞાની छे ( जाय केवलणाणी) डेटामेन श्रुतज्ञानी हुता, डेटला अवधिज्ञानी हुता, કેટલાએક મન પયજ્ઞાની હતા, તથા કેટલાએક ડેવલજ્ઞાની હતા કૈવલ કહેવામા આવે
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy