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________________ १४६ औपपातिकबरे बुब्बुयसमाण कुसग्ग-जल-विंदु-चचलं जीवियं च णाऊण, अद्धवमिणं रयमिव पडग्गलग्ग सविधुणित्ताण, चइत्ता हिरण, चिच्चा सुवण्णं, चिच्चा धणं, एव धणं बलं वाहण कोस कोहानम्-यथा जले बुबुदा प्रादुर्भवन्ति झटित्येव नश्यन्ति च तद्वत् आशुपिनागि, तथा 'कुसग्ग-जलबिंदु-चचल' कुशाग्र-जलनिन्दु-चञ्चल-कुशाऽग्रे-दर्भपत्राप्रमागे यो जलबिन्दु तद्वच्चञ्चल-झटिति पतनगाल, 'जीरिय' जीवित-मनुष्यजीवनम् , 'णाऊण-जात्वा-अवगत्य, ‘अदुधमिण' अध्रुवमिदम्-इट विषयसौग्यधनासिञ्च याऽऽदिकम् , अध्रुवम् अनियतरूप, 'पडग्गळग्ग ' पटामलान, 'रयमिग-रज इव-धूतिकणमिव 'सपिधुणित्ताण' सविधूय-सम्यक् विशेषरूपेग, पृथक्कृत्य, तथा 'चहत्ता' त्यक्त्वा, ‘हिरण्ण ' हिरण्य-रूप्यम् , 'चिच्चा सुवण्ण' त्यत्क्या सुवर्णम्, 'चिच्चा धण' त्यक्त्वा धनम्, 'एव' एवम्-अनेन प्रकारेण 'धण्ण'-धान्य-ठाल्यादिसञ्चयम् , वल-चतुर्विध सैन्यम् , 'वाहण' वाहन-रयादिकम् , 'कोस' कोशम्-स्वर्णरजतादि गृहम् , 'कोट्ठागार' कोष्ठागार धान्यराशिगृहम्' 'रज' राज्य-राजाधिकृतदेशम् ऐसा जानकर (अद्धवमिण रयमिव पडग्गलग्ग सविधुणित्ताण) तथा ये विषयसुख एव धन आदि का सचय सब के सब अध्रुव-अनित्यस्वरूप है, ऐसा विचार कर, उन्होंने पटके अग्रभाग में लगी हुई धूलि के समान उन्हे भावत मन से सर्वथा दूर कर दिया। और ये द्रव्यत बाह्यरूप से भी (चइत्ता हिरण्ण, चिच्चा सुवण्ण, चिच्चा धण एव धण्ण बल वाहण कोस कोट्ठागार रज्ज रह पुर अतेउर चिच्चा, विउल-धण कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-सख-सिलप्पवाल रत्तरयण माइय सत सार-सावतेज विच्छड्डइत्ता विगोवइत्ता, दाण च दाइयाण परिभायइत्ता, मुडा भरित्ता,अगाराओ अणगारिय पव्वइया) हिरण्य-चादी का परित्याग कर, सुवर्ण का परित्याग कर,सोनाचादी से अतिरिक्त धन का परित्याग कर, इसी तरह धान्य का, लग्ग सविधुणित्ताण ) तथा या विषयसुम तभ४ घन माहिना सयय तमामे તમામ અધુવ-અનિત્યસ્વરૂપ છે, એમ વિચારીને તેઓએ વસ્ત્રના છેડા ઉપર લાગેલ ધૂળની જેમ તેમને ભાવપૂર્વક મનમાથી તદ્દન ત્યાગ કર્યો भने तसा द्रव्यथा माथे पर (चइत्ता हिरण्ण, चिचा सुपण्ण, चिचा वण, एव धण्ण वल वाहण कोस कोट्ठागार रज्ज रह पुर अतेउर चिच्चा, विउल-धण मग-रयण-मणि-मोत्तिय-सस-सिलप्पवाल-रत्तरयण-माइय सत-सार-सावतेज्ज विच्छडूइत्ता विगोरइत्ता, दाण च दाइयाण परिभायइत्ता, मुडा भवित्ता, अगाराओ अणगारिय पव्वइया) डि२५य याहीना परित्याग ४रीने,सुपणुनी परित्याशन,
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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