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पीयूपयपिणी टीका सू १९ कृणिकस्य तत्कालोचिताचरणम् ११५ उत्तरासंगं करेड, करित्ता अंजलिमउलियहत्थे तित्थगराभिमुहे सत्तदृपयाइ अणुगच्छड, अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेड, अंचित्ता दाहिणं जाणु धरणितलंसि साहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि वालव्यजन-चामयुगल त्यजति । त्यक्त्वा 'एगसाडिय उत्तरासग करेड' एकशाटिकमुत्तरासन करोति, एकगाटिकम्-अस्फाटितमयोजित स्यूतरहितम् उत्तरासद्गम्=उत्तरायवत्र मुग्योपरि यतनार्थ करोति-धरति 'करित्ता' कृवा 'अजलिमउलियहत्थे' अञ्जलिमुकुरितहस्त -अञ्जलिना-अनलिवन्धनेन मुकुलितौ कमलमुकुलतुल्यौ, हस्तौ यस्य स तथा-बद्धाञ्जलिपुट इयर्थ । 'तित्थगराभिमुहे' तीर्यवराभिमुग्व -यस्या दिगि महावीरप्रमुर्वर्तते तस्या दिगि कृतमुग्म 'सत्तद्वपयाई अणुगन्छइ' सम अष्ट पदानि अनुगच्छति-आनुकृल्येन नजति-सिंहासनात्प्रभुसम्मुख सप्ताप्टपदानि गच्छति, 'अणुगच्छित्ता' अनुगम्य ‘वाम जाणु अचेद' वाम जानु आकुञ्चयति-उर्व करोति, 'अचित्ता' वाम जा वाकुल्य-उनीक य, 'दाहिण जाणु घरणितलसि साहटु' दक्षिण जानु धरणितले सहय-अघ सस्थाप्य, 'तिरखुत्तो' त्रिव-निरावृत्त-त्रिवारमिति यावत्-'मुद्धाण धरणितलसि एव दोनों चामर । फिर (एफसाडिय उत्तरासग करेइ ) पश्चात् अस्फाटित, अयोजित-पिना सीये ऐसे उत्तरीयवव को मुस के ऊपर यतनानिमित्त धारण किया । (करित्ता) धारण कर ( अनलिमउलियहत्थे तित्थगराभिमुहे सत्तट्ठपयाद अणुगच्छड ) नद्ध कमल के समान अञ्जलिपुट करके जिस दिगामे तीर्थकर विराजमान थे उस ओर समुस होकर सात आठ पग आगे गये, (अणुगच्छित्ता वाम जाणु
अचेइ ) जाकर वहा उन्होंने अपने बाये घुटने को ऊपर किया और (दाहिण ___जाणु धरणित सि साटु) दाहिने घुटने को जमीन पर रखकर (तिक्खुत्तो
(एगसाटिय उत्तरासग करेड ) २५टित, ( या परनु ) मयादित न्यूत રહિત (સીવ્યા વગરનું ) એવા ઉત્તરીય અને મુખ ઉપર યતના નિમિત્ત धा२६ अर्यु (करिता) धारण उगने (अजलिमउलियहत्ये तित्थगराभिमुहे सत्तट्ठपयाइ अणुगच्छद) १५ भजनी 8 मतिYट ४रीने न शामा તીર્થકર બિરાજમાન હતા તે તરફ સન્મુખ થઈને નાત આઠ પગલા આગળ गया, ( अणुगच्छित्ता वाम जाणु अचेइ ) ४४ने त्या तभणे पोतान। मे। दीय ५२ राज्ये मन (दाहिण जाणु धरणितलसि साहट्ट ) मा ढीयन भान ७५२ मीन (तिम्खुत्तो मुद्धाण धरणितलसि निवेसेइ) त्र २