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________________ पीयपपिणी टीका स १६ भगवन्महावीरस्वामियर्णनम् पुण्ण-विउलक्खंधे जुगसन्निभ-पीण-रइय-पीवर-पउट्ट- सुसंठियसुसिलिह-विसिट्ट-घण-थिर-सुवद्ध-संधि-पुरवर-फलिह-वडिय-भुए विपुलस्कन्ध -श्रेष्ठमहिपराह सिंहव्यात्रवृप गजवरागामिव प्रतिपूर्णी-प्रमाणयुक्ती-विपुलौ=विस्नी ९ सामुद्रिकशास्त्रोक्तलक्षणयुक्तो स्कन्धौ यस्य म तथा, 'सिंहव्यानानियत्सामुद्रिकोक्तग्गयुक्तप्रमागमहितविशालम्कन्धवान् इति भार । 'जुगसन्निभ-पीण-रइयपीपर-पउठ्ठ-मुसठिय-मुसिलिट्ठ विसिट्ठ-पण-थिर-मुबद्ध सधि पुरवर-फलिह-घट्टियभुए' युगमनिम-पान-तिट पीचर प्रकोष्ठ-मुसस्थित मुश्लिष्ट-विशिष्ट-घन - स्थिर-सुनद्ध-सन्धि पुरवर___ परिघ-वर्तितमुज , युगेन=गकटापायामस्थितकाप्ठेन सनिभौ-तुल्यौ, पोनौ-पुष्टी, रतिटीआतिप्रदी, पीपरप्रकोष्ठौ-कफोणे 'खूणी' इति प्रसिद्धादधस्तामणिधपर्यन्त प्रकोछ , पीपरौ पुष्टौ प्रकोष्ठौ ययोर्भुजयोस्तो, सुसस्थिती=सुन्दरमस्थानवन्तौ, पुन कीदृशौ -मुश्लिष्टा -पयुक्ता , विशिष्टा -प्रधाना ,धना सधना , स्थिरा -दृढा -सुनद्धा =सुप्छु बद्धा स्नायुभि सन्धय =सस्थिसयोगस्थानानि ययोस्तौ-मुश्लिष्टविशिष्टयनस्थिरसुवद्धसधी, पुन -पुरचरपरिघनत् नगरश्रेष्ठा-लावत् वर्तितौ-चतुलौ बाह-भुजौ यस्य स तथा, मुन्दरनगरार्गलारत् दृढदीर्घमुजवान् इति भाव । 'भुयगीसरविउल भोग-आयाण-पलिहउच्छह-दीह-वाहू-भुजगेश्वर-विपुल-भोगा -दान-पर्यवक्षिप्त-दीर्घनागवा-पडिपुण्ग-विउल-ख) श्रेष्ठ महिप, वराह, सिंह, शार्दूल, वृषम, एव श्रेष्ठ हाथी के स्कध जैसे विपुल स्कन्ध थे, (जुगसन्निभ-पीण-रइय-पीवर-पउट्ठमुसठिय-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-घण-थिर-सुबद्धसधि-पुरसर-फलिह-वटियभुए) गाडी के जुए के समान प्रीतिप्रद, पीपरप्रकोप्ट्युक्त-पुष्टपौचावाली, सुन्दर आकृतिमपन्न ऐसे, एव मुश्लिष्ट-स्युक्त-मिली हुई, विशिष्ट–उत्तम, घन-गठीली, मजबूत, स्थिर-स्नायुओं से मुखबद्ध ऐसी लधियों वाली, तथा नगर की परिघा-भोगल-जैसी वर्तुल मुजायें यां। (भुयगीसर-विउलभोग-आयाण-पलिहउन्यूढ-दीह-वाह) वाञ्छित वस्तु वर-पटिपुण्ण-विउल-चसधे ] श्रेष्ठ पास, १२,मिड, शाईस, ४, तेभा श्रेष्ठ डायान वी विपुस माघ ती (जुगसन्निभ-पीण-रइय-पीवरपट्ठ-सुसठिय-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-घण-थिर-सुनद्ध-सधि-पुरवर-फलिह-यट्टियभुए) ગાડાના વોસરા જેવી પુષ્ટ, પ્રીતિપ્રદ, પીવર પ્રકાષ્ઠ-પુષ્ટ કાડે વાળી, સુદર આકૃતિવાળી તેમજ સુશ્લિષ્ટ–સ યુક્ત મિલિત, વિશિષ્ટ–ઉત્તમ, ઘન-ભરાઉં, સ્થિર-મજબૂત સ્નાયુઓથી સુસ બદ્ધ સધિઓવાળી તથા નગરની ભાગળ भ गोणार सुन्न। ती [भुयगी-सर-विउलभोग-आयाण-पलिहउच्छूट
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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