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निमन्धन काष्ठे अमन-मविधमान समूति -उत्पद्यते । यथाना-सीरे-पूर्वमविधमान घृत समुत्पद्यते तथा च तिलेपु पूर्वमविद्यमान तेल समुत्पद्यते । एवमेष अनेन प्रकारेणैर, शरीरेऽपि पूर्वमसन्त एर सत्वा जीवा, समूर्च्छन्ति समुत्पधन्ते । नश्यन्ति उत्पन्ना भूत्वा अध्रपटलमिर नाशमुपयान्ति। नावतिष्ठतेशरीरनाशानन्तर न विप्ठन्तीत्यर्थः । शरीरनाशे सति जीवानामपि नाशनीवाः पुनर्धर्माधर्मविपाकानुभवार्थ न पुनर्भर माप्तुपन्तीति भारः।। हो जावे, ऐसा विचार कर पुरोहित अय आत्माके अस्तित्वका निषेध करता हुआ कहता है-'जरा य अग्गी' इत्यादि। : अन्वयार्थ-(जाया-जाती। हे पुत्रो! (जहा-यथा) जैसे (अग्गी-अग्नि (अरणीउ-अरणौ) अरणि काष्ठमें पहिलेसे (असतो-असन् ) नहीं होती है परन्तु रगडनेसे (समुच्छई-समाति) यह वा उत्पन्न हो जाती है तथा (जहा यथा) जैसे (खीरे-क्षीरे) दूधमे पूर्व अविद्यमान (घय समूच्छई घृत समूर्छति) धृत उत्पन्न हो जाता है (तिलेसु तिल्लम्-तिलेपु तैलम् ) तिलों में तेल उत्पन्न हो जाता है (ज्वमेव-एवमेच) इसी तरह (सरीरमि-शरीरे) शरीर में पूर्वअविद्यमान (सत्ता-सत्या.) जीव भी (समुच्छई-समूछति) उत्पन्न हा जाते हैं। (नासइ-नश्यन्नि) नष्ट हो जाते हैं। (नावचिद्र-नावतिष्ठन्ते) शरीर नाशके अनन्तर नहीं रहता है। अतः जब शरीरके नाश होते ही जीव नष्ट हो जाते हैं तो फिर धर्माधर्मके विपाकको એમને સમજાવવું જોઈએ કે જેથી તેની પ્રવૃત્તિ, ધર્મથી વિમુખ થઈ જાય એ વિચાર કરીને પુરેહિત હવે આત્માને નિષેધ કરતા કહે છે– - "जहा य अग्गी"-त्यादि । अन्या -जाया जाती है पुत्र! जहा-यथा म अग्गी-अग्नि अभि अरणीउ-अरणौ १२वीना CSRHI पडसाथी असतो-असन् नथो खाती ५२तु २१पाथी समूच्छई-समूच्छति ते त्या उत्पन्न थाय छ जहा-यथा रेभ खीरेक्षीरे दुधमा ५ विधमान घय समुच्छई-घृत समूर्च्छति घी अत्पन्न याय छ तिलेसु तिल्ल-तिलेपु तैलम् तसभ तर पनि थाय छे एवमेव-एवमेव ने शते सरीरमि-शरीरे शरीरमा पूर्ण विद्यमान सत्ता-सत्वा ७१ ५५ सम् च्छई-समूर्च्छति पनि थाय छे नासइ-नश्यत्ति नाश पाम छे नावचिढ़ेनावतिष्ठन्ते शरीर नाशना मनात हेतु नथी माथी शरीरन नाथ यता જીવને પણ નાશ થઈ જાય છે પછી ધનધર્મને વિપકને અનુભવ કરવા