________________
४५३
प्रियदधिनी टीका म. २ गा ३१ अलापरोपहाय निष्टे स्वल्पे वा लब्धे सति, अल थे वा नानुतप्येत भाग्यहीनोऽस्मि, भिक्षाऽपि न लम्यते' इत्यादिरूप सताप न कुर्यादित्यर्थः । 'परिनिहिए' इति पिशेपणेन भोजनकाल एर गच्छेदिति सूचितम् । 'घास' इत्यनेन भ्रमरवृत्त्या ग्राह्यमिति बोधितम् ॥ ३०॥
तर्हि किं कुर्यादित्याहमूलम् अजेवाह ने लव्भामि, अवि लाभो सुए सिया ।
जो एंव पडिसचिवखे,अलोभो त' ने तजए ॥३१॥ छाया-अद्यैवाह न लभे, अपि लाभः श्वः स्यात् ।
य एक प्रतिसमीक्षते, अलाभस्त न तर्जयेत् ॥ ३१॥ पिण्डे लब्धे अलब्धे वा) उस समय यदि थोड़ाआहार मिले अथवा बिलकुल
भी न मिले तो भी वह (नाणुतप्पेज्ज-नानुतप्येत ) "मैं भाग्यहीन ह मुझे भिक्षा भी नहीं मिली" इत्यादिरूप सताप न करे। "परिनिटिप" इस विशेपणद्वारा सूत्रकार की साधु के लिये यह सूचना है कि वे गोचरी के लिये भोजनकाल मे ही निकले । “घास" इस पद से गृहस्थों के यहा से जो भी आहार ग्रहण किया जाय वह भ्रमरवृत्ति से किया जाय, यह सूचित किया है।
भावार्य-साधु को गोचरी के लिये भोजनकाल में ही निकलना चाहिये, उस समय यदि भोजन अल्प मिले या बिलकुल भी न मिले तो इस विषय में किसी भी प्रकार का उसे मन मे सताप नही करना चाहिये ।। ३०॥ अद्ध वा-पिण्डे लब्धे अलधे वा से समये तर थोड न भणे अथवा मारास न भणे ५ ते नाणुतप्पेज्ज-नानुतप्येत हुमायडीन छु भने मिक्षा ન મળી” એવી રીતે સતાપ ન કરે પરિનિટ્રિપ એ વિશેષણદ્વારા સૂત્રકાર સાધુ માટે એવું સૂચન કરે છે કે, તે ગોચરી માટે ભેજન સમયે જ નિકળે વાત આ પદથી ગૃહસ્થને ત્યાથી જે કઈ આહાર ગ્રહણ કરવામાં આવે તે ભ્રમરવૃત્તિથી સ્વીકાર કરવું જોઈએ આ સૂચના આપવામાં આવે છે
ભાવાર્થ-સાધુએ ગોચરી માટે ભોજન કાળમાં જ નિકળવુ જોઈએ તે સમયે જે થોડુ મળે અગર ન મળે તે પણ આં વિષયમાં તેના મનમાં કોઈ પ્રકારને सत५ थवे। न मे ॥ ३०॥