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उत्तराध्ययनसूत्रे ममत्वाभावः कथ स्यादित्याह-गृहस्थैः आपकैः, अससक्त रागससर्गवर्जित इत्यर्थः, अनिकेता गृहर्जितः नैका प्रतिपदस्थितिक इत्यर्थः, परिप्रजेद-सर्वतो विहरेत् न तु नियतदेशादादेव । अय भाष:-गृहस्यैः सह रागससर्गकरणे, एकत्र प्रतिवद्धास्पदत्वे, नियतदेशग्रामनगरादिविदारिताया पा ममत्वबुद्धिः स्यात् । तस्मादालस्य निरस्य ग्रामनगरकुलादिप्वनियतवसतिनिर्ममत्वः सन् यथाकल्पमा सक्तिरहितश्चर्यामाचरेदिति। अर्थात्-ग्रामादि मे कही भी ममत्व नही करे । तथा (मिहत्थेहिं अससत्तो-गृहस्थैः अससक्तः ) गृहस्थों के साथ राग के ससर्ग से वर्जित उनमे मोहरूप परिणाम से रहित होकर वह (अणिएओ-अनिकेतः) स्थानादि की ममतारहित होता हुआ (परिव्वए-परिव्रजेत्) ग्राम नगरादि में विहार करता रहे। इसका भाव यह है कि गृहस्थों से रागात्मक परिणति करने पर साधु को एक ही जगह प्रतिबद्ध होकर रहने का प्रसग प्राप्त हो सकता है, इस परिस्थिति में नियत देश, ग्राम आदि में ही उसका विहार होगा, अतः उसमे ममत्ववुद्धि का सद्भाव हो जायगा। इसलिये प्रमाद का परित्याग कर ग्राम नगर आदि में अनियतरूप से विचरने वले मुनि में निर्ममत्वभाव रहता है। इसलिये साधु को चाहिये की वह गृहस्थों से अससक्त होकर यथाकल्प अनियतविहाररूप चर्या करता रहे। भावार्थ-इस गाथा द्वारा सूत्रकार १८वी गाथा में कहे हुए ही
मर्थात-माहिमा ध्याय ५६ ममापन ४२ तथा गिहत्थेहिं अससत्तोगृहस्थै-अससत गस्थनी साथे शसना ससमयी २डित-तमा भाड३५ परिणामयी २डित मनान ते अणिएओ-अनिकेत स्थानाहिनी ममता २लित थईन, परिव्वए-परिव्रजेत् श्राम नगर माहिमा विहार ४२ता २९ तना ભાવાર્થ એ છે કે, ગૃહ સાથે રાગાત્મક પરિણતી કરવાથી સાધુને માટે એક જગ્યાએ પ્રતિબદ્ધ થઈને રહેવાને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે. આ પરિસ્થિતિમાં નિયત ગ્રામનગર આદિમજ તે વિચરશે, આથી એનામા મમત્વની ભાવના ઉત્પન્ન થશે માટે પ્રમાદને પરિત્યાગ કરી ગામનગર આદિમ અનિયત રૂપથી વિચરનાર મુનિમા નિમમત્વભાવ રહે છે આટલા માટે જ સાધુ માટે તે ગ્રહ થી અસ સક્ત બની યથાકલ્પ અનિયત વિહારસ્વરૂપી ચર્ચા કરતા રહે તે જરૂરી છે ભાવાર્થ-આ ગાથા દ્વારા સૂત્રકાર ૧૮ મી ગાથામાં કહેલ.