________________
प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा १५ अरतिपरीपहजय
३७१ दुःखननकादशुभध्यानाद् येन स तया, यद्वा-भायरक्षित इतिच्छाया, आय:रत्नत्रयस्य लाभा, रक्षितो येन स तथेत्यर्थः । निरारम्भा सावधक्रियापर्जितः, तथा उपशान्ता क्रोधादिकपायोपशमाद् मनोवाकायविकारवर्जितः मुनिः, अरति पृष्ठतः कृत्वा-इयं धर्मविराधिकेति मत्वा परित्यज्य धर्माराम चरेत् , इत्यग्रेण सम्बन्धः ।
अरविहि धूलिरिवात्मान मलिनयति, जलदपटलारलीसकुला गाढतिमिरपरिव्याप्ता रजनीव विवेक सहरति, अविवेक वर्धयति, वजमिन ज्ञानादिगुणानुपघातयति, अविवेकिजनमन कानननिवासिनी कृष्णसर्पिणीव छिद्रान्वेषणपरा मुनोना अपनी आत्मा की रक्षा करने वाला अथवा " आयरक्षित " रत्नत्रय. लाभरूप आय-आवक की रक्षा करने वाला-सभाल रखनेवाला, तथा (निरारभे-निरारभ.) सावद्य क्रिया के सेवन से वर्जित, तथा (उवसते --उपशातः) क्रोधादिक कपाय के उपशम से मन वचन एवं काय सवधी विकारों से रहित (मुणी-मुनिः) साधु (अरइ पिट्टओ किचाअरतिं पृष्ठत. कृत्वा) अरति का परित्याग कर (धम्मारामे-धर्मारामे) धर्मरूपी उद्यान मे (चरे-चरेत्) सदा लवलीन रहे-उस में सर्वदा विचरता रहे।
यह अरतिभाव धूली की तरह आत्मा को मलिन करता है। बादलों के समूह से सकुल एच गाढ अन्धकार से व्याप्त रात्री के समान यह विवेकरूपी सूर्य को आच्छादित करदेता है, एव अविवेकरूपी अन्धकार की वृद्धि करता है। वज्र की तरह ज्ञानादिक गुणरूप पर्वत का भेदन करता है । यह अरतिभाव अविवेकी जन के मनरूप ५२१०१ाणा मया "आयरक्षित " २त्नत्रय दास३५ माय-मानी २२॥ ४२१॥ पापा-ममा रामपापा निरारभे-निरारभ तथा साध लियाना सेवनधी पछत उवसते-उपशात पाहि पायन शमवी मन पयन मने आय समधी विशथी हित मुणी-मुनि साधु अरइ पिटुओ किच्चा-अरति प्रष्ठत कृत्वा मतिना त्यास री धम्माराम-धर्मारामेधभपी धानमा चरे-चरेत એમાં સદા વિચરતા રહે
આ અરતિભાવ ધુળની માફક આત્માને મલીન કરે છે વાદળેના સમૂહથી છવાયેલ અને ગાઢ અધિકારથી વ્યાસ રાત્રિના સમાન એ વિવેકરૂપી સૂર્યને આચ્છાદિત કરે છે, અને અવિવેકરૂપી અધિકારની વૃદ્ધિ કરે છે વજની માફક જ્ઞાનાદિક ગુણરૂપ પર્વતનું ભેદન કરે છે આ અરતિભાવ અવિવેકી માણસના