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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० १३ अचेलपरीपहजय ३२७ नपीनपत्रसद्भावे वनिमित्तक हपं न कुर्यात् , तथा एपणीयप्रमाणोपेतवस्त्राणाममहामूल्यकत्वादल्पत्वादशोभनलाच विपाद न कुर्यात् शीतस्पर्शादिना नाधितोऽपि प्रमाणाधिकाखाकावा च न कुर्यादित्यर्थः । तथाचोक्तमाचारागसूत्रे "जे भिखू तिहिं वत्थेहि परिसिए पायचउत्येहि, तस्स ण णो एव भवइ, चउत्थं चत्य जाइस्सामि । " ( आचा. १ यु ८ अ. ४ उ.) छाया-यो भिक्षुत्रिभिर्वस्त्रै पर्युपितः पात्रचतुर्थेः, तस्य खलु नो एव भवति चतुर्थ वस्त्र याचिष्ये । पर्युपित. व्यवस्थितः । अनेन स्थपिरकल्पिकस्य चतुर्थवस्त्र पतिपेधोऽवगम्यते । अपर च-तत्रैवोक्तम् ___“जस्स ण भिक्खुस्स एव भवइ-पुट्ठो खलु अहमसि नालमहमसि सीयफास __ भाव नहीं करना चाहिये-और ये नवीन वस्त्र हैं इनसे शीत आदिक की रक्षा यरत अच्छी तरह हो जायगी" इस प्रकार कभी हर्पित भी नहीं होना चाहिये। शीतस्पर्शादिक से पीडित होने पर प्रमाण से अधिक वस्त्रों की आकाक्षा करना सायुमार्ग में निपिद्ध है । आचाराग सूत्र (१ अ ८ अ ४ उ.) में यही वात रतलाई गइ है “जे भिक्खू तिस्वित्यहिं परिसिए पायचउत्थेटिं तस्स ण णो एव भवइ चउत्थ वत्थ जाइस्सामि" जो भिक्षु तीन व्रखों से एव चौये पात्र से व्यवस्थित रहता है उसे चतुर्य वस्त्र के याचन की आवश्यकता नहीं होती है उस के चित्त में यह बात नही आती है कि मै चतुर्थ वस्त्र की याचना करूँ। इस कथन से स्थविरकल्पी साधु को चतुर्थवस्त्र का प्रतिषेध सिद्ध होता है। और भी आचाराग सूत्र (१ ८ अ ४ उ' ) में कहा है "जस्स ण भिक्खुस्स एव भवइ-पुट्ठो खलु अहमसि नालमहमसि सीयफास નવીન વસ છે, તેનાથી ઠડી વગેરેની રક્ષા સારી રીતે વિશે, આ પ્રકારે કદી હર્ષિત પણ ન થવું જોઈએ કડીના સ્પર્શથી પીડિત થવાથી અધિક વની આકાલા કરવી તે સાધુ માર્ગમાં નિષેધ છે આચારાગસૂત્ર (૧ ૮ અ ૪ ઉ) भा मेवी दात मतावामा मावेस छ , जे भिक्यू तिहि वत्थेहि परिखुसिए पाय चउत्येहि तस्स ण णो एव भवइ चउत्थ वत्थ जाइस्सामि भिक्षु त्रण पत्र भने ચોથા પાત્રથી વ્યવસ્થિત રહે છે તેને ચોથા વસ્ત્રની યાચના કરવાની આવશ્યકતા થતી નથી એના ચિત્તમા એ વાત આવતી નથી કે હુ ચોથા વસ્ત્રની યાચના કરૂ આ કથનથી સ્થવિરકલ્પી સાધુને ચેથા વસ્ત્રને પ્રતિષેધ સિદ્ધ થાય છે બીજુ પણ આચરાગ સૂત્ર (૧ શુ ૮ અ ક ઉ ) મા કહ્યું છે– जस्स ण भिक्खुस्स एव भवइ-पुट्ठो खलु अहमसि नालमहमसि सीयफास
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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