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________________ प्रियदर्शिनी टीफा अ० २ गा० ११ दशमशकपरीपहजय ___ ३१९ ___ केन प्रकारेण भातशत्रु जयेदित्याहमूलम्-न सतसे न वारेजों मंणपि न पओसए। उवेहे ने हणे पाणे, भुजन्ते मससोणिय ॥११॥ छाया-न सत्रसेत् न वारयेत् , मनोऽपि न प्रदूपयेत् । उपेक्षेत न हन्यात् माणान , भुस्तानान् मास शोणितम् ॥ ११ ॥ टोका--'न सतसे' इत्यादि । महामुनिदेशमशरुपद्रुत. सन् न सनसेत् नोद्विजेत्-दशमशकादिभिर्दश्यमानोऽपि न ततः स्थानादपगच्छेदित्यर्थ । न वारयेत् , हस्तवस्त्रादिना नापसारयेत्मनोऽपि न प्रदूपयेत्=न कलुपित कुर्यात् अपि-शब्दाद्वचनादिकमपि न प्रदुष्ट ___इसका भाव यह है-जैसे पराक्रमी हस्ती वाणों के आघात से व्यथित रोने पर भी रण में शत्रु को परास्त कर देता है, उसी तरह माधु भी दशमशक आदि द्वारा पीडित होने पर भी कपायरूपी शत्रु को परास्त करे ॥१०॥ भावशत्रु को किस तरह परास्त करना चाहिये इसको इस गाथा द्वारा स्पष्ट किया जाता है—न सतसे इत्यादि __ अन्वयार्थ-महामुनि दशमशक आदि से पीडित होने पर भी (न सतसे-न सनसेत्) कभी भी चित्त में उद्विग्न न होवे-दशमशक आदि से पीडित होने पर भी मुनि एक स्थान से दूसरे स्थान पर नही जावे (न वारेज्जा-न वारयेत् ) दसमशक को अपने शरीर पर बैठ जाने पर हस्तअथवा वस्त्र आदि से नही हटावे । (मण पि न पओसए આ ભાવ એ છે કે-જેમ પરાક્રમી હાથી બાણના આઘાતથી પીડિત હોવા છતા પણ રણમાં શત્રુને પરાજીત કરે છે, તેવી જ રીતે સાધુ પણ દશમશક આદિ દ્વારા પીડિત હોવા છતા પણ કવાયરૂપી શત્રુને પરાજય કરે ભાવશને કેવી રીતે જીતવા જઈએ, એ હકીકત આ ગાથા દ્વારા प्रगट ३२पामा आवे छे नसतसे-त्याह अन्वयार्थ-डास भने भ२७२थी पीडित मनवा छता प न सतसे-नर्सनसेत् મહામુનિ ચિત્તમ ઉદ્વેગ ન લાવે,–ડાસ મચ્છરના કરડવાથી મુનિએ એક સ્થાનથી भी स्थान न , न वारेज्जा-न वारयेत् स भ२७२ने पोताना शरी२ ५२ मेरा नधन लाथ मन पर माहिया ने हटा नही, मणपि न पओसए
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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