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प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा ९ उष्णपरीपहजयोपदेश
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दिक, तेन परिताप:- उष्णपरितापस्तेन तर्जितः, अत्यत पीडितःसन्, तथापरिदाहेन = सूर्यकिरण सतप्तनायुना 'लू' इति भाषामसिद्धेन दाहज्वरादिकृतान्तरिकतापेना, वर्जित, तथा परितापेन = मूर्य किरणादिजनिततापेन-तर्जितः, सात =मुख प्रति न परिदेवयेत् = हा ! कदा मम चन्द्रचन्दनशीतलानिलादिभिः सह सयोगो भविष्यति येन मम शान्तिः स्यादिति ॥ ८ ॥
उपदेशान्तरमाह
मूलम् - उपहाहितत्तो मेहावी, सिणाण नो वि' पत्थंए । गाय नी परिसिवेज्जा, ने वीऐंज्जा ये अप्पेय ॥ ९ ॥
छाया - उष्णाभितप्तः मेधावी, स्नान नो अपि पार्थयेत् । गान नो परिषिञ्वेत्, न वीजयेच्च जात्मानम् ॥ ९ ॥
योग से तप्त ऐसे जो भूमि, धूलि, एव पापाण आदि है उनके द्वारा जो परिताप-कष्ट होता है उससे, तथा (परिदाहेण ) सूर्य की किरणो द्वारा गर्म हुई वायु से लूसे, अथवा दाहज्वर आदि से होने वाले आन्तरिक ताप से (परियावेण परितापेन) एवं सूर्य की किरणों से उत्पन्न हुई अत्यत गर्मी से ( तज्जिए - तर्जितः ) अतिशय पीडित साधु ( साय नो परिदेवए-शात नो परिदेवयेत् ) सुख की वाच्छा न करे- हा ! किस समय मुझे चन्द्र अथवा चढ्न के समान शीतल पवनादि का सयोग मिलेगा कि जिस से मुझे शानि मिले । अर्थात् साधु का कर्तव्य है कि वह हरएक अवस्था में उष्णपरीपर को जीते किन्तु इस से घबराये नही ॥ ८ ॥
સ ચેાગથી તપેલ એવી જે ભૂમિ ધૂળ અને પાષાણુવાળી છે छे, भेनाथी तथा “परिदाहेण" सूर्यनारो द्वारा गरम અથવા દાહવર આદિથી થનાર આતરિક તાપથી બચાવે हिरणोथी उलवेल अत्यंत गरभोधी तज्जिए-तज्जित "सायनो परिदेवए-शात नो परिदेवयेत् सुमनी वास्छना न अरे भने उया समये यद्र અથવા ચદનની જેવી શીતળ પવન આદિને સચેાગ મળે કે જેથી મને શાન્તી થાય અર્થાત્—સાધુનુ તબ્ય છે કે તે દરેક અવસ્થામા ઉજ્જુ પરીષહને छते, परंतु तेनाथी गमराय नही (८)
તેના દ્વારા જે કષ્ટ થાય थयेसा वायुथी सूथी, પાવેન અને સૂર્યના अतिशय पीडित साधु