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________________ प्रियदर्शिनी टोका गा ४३ शिष्यकर्त्तव्योपदेश २५५ मोक्षार्थी कर्तव्यः प्रतिलेखनादिरूप, अस्ति, त व्यवहारम् - आचरन् साधुः, गर्दानिन्दाम् -' अविनीतोऽयम् ' इत्यादिरूपा नाभिगच्छति न प्राप्नोति । एव कृते गुरोः कपोत्पत्तिर्न भवतीति भावः । 'धम्मज्जिय' इत्यादौ प्रथमार्थे द्वितीया आर्पत्वात् । ' धम्मज्जिय' इति विशेषण प्रतिलेखनादिव्यवहारस्य शास्त्रानुकूलर्ता दभसमानाद्यर्थं कृतव्यवहारस्य परिहार्यता च नोधयति । 'बुद्धेहायरिय' इति विशेषण व्यवहारस्य शासनसप्रदायानुगतत्व मूचयति ॥ ४२ ॥ मूलम् - मणोगयं वर्ककगय, जाणित्तायरियस्स उ । - "त परिगिज्झ वायाए, कर्म्मणा उववायए ॥४३॥ के द्वारा अर्जित किया है, तथा (सया-सदा) सर्व काल (बुध्धेहायरियबुद्धैः आचरितः) तीर्थंकर गणधारो के द्वारा आचरित सेवित हुआ है ऐसा यह (ववहार-व्यवहारः) प्रतिलेखनादिरूप कर्तव्य है । (त ववहार आयरतो- त व्यवहारम् आचरन् ) उस व्यवहार को अपने आचरण मे लाने वाला साधु (गरह - ग ) 'यह अविनीत है' इत्यादिरूप निन्दा को (नाभिगच्छछ - नाभिगच्छति) प्राप्त नही करता है। " धम्मजिय " यह पद यह सूचित करता है कि प्रतिलेखनादिकरूप जो व्यवहार है यह शास्त्रानु कूल है, तथा दभ एव सम्मान आदि के निमित्त जो व्यवहार किया जाता है वह परिहार्य है । " बुद्धेशयरिय " यह पद 'यह व्यवहार तीर्थकर एव गणधरो की परपरा से चला आ रहा है अतः प्रामाणिक है' यह सूचित करता है ॥ ४२ ॥ वाभा आवे छे तथा सया - सदा सर्व आज बुद्धेहायरिय - बुद्ध आचरित तीर्थ ४२ गायुधरोथी सेवीत थयेस छे सेवा भाववहार-व्यवहार प्रतिसेानाहिय छेमा व्यवहारने पोताना आयरशुभा दावनार भाधु गरह-गर्दा 'आयविनीत छे' इत्यादि ३५ निधाने नाभिगच्छइ-नाभिगच्छति प्राप्त उरता नथी धम्मज्जिय આ પદથી એ સૂચિત થાય છે કે પ્રતિલેખનાદિક રૂપ જે વ્યવહાર છે તે શાસ્ત્ર સુફળ છે તથા દલ અને સમ્માન આદિ નિમિત્ત જે વ્યવહાર કરવામા આવે छे ते परिहार्य छे " बुद्धेहायरिय " मा पहथी या व्यवहार तीर्थ ४२ तेभन ગણધરોની પર પરાથી ચાટ્યા આવે છે આથી તે પ્રમાણીક છે એવુ સૂચિત दवाभा भावे हे ॥ ४२ ॥
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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