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प्रियदर्शिनी दीका अ० १ गा० ३० शिप्याय शिक्षा मूलम्-आसणे उवैचिट्ठिज्जा, अणुचे अकुए थिरें।
अप्पुटाई निरुहाई, निसीएजप्पकुक्कुए ॥३०॥ छाया-आसने उपतिष्ठेत्, अनुच्चे अकुचे स्थिरे ।
अल्पोत्थायी निरुत्यायी, निपीदेत् अल्पकौकुच्यः ॥३०॥ टीका-'आसणे' इत्यादि____ अनुच्चे-द्रव्यतो गुर्वासनानीचे, भावत स्वल्पमूल्यके, अकुचे अफम्पमाने, यद्वा चटकारादिशब्दरहिते, स्थिरे समपादयत्त्वेन निचले, आसने उपतिष्ठेत् पीठादौ वर्षामु उपतिष्ठेत्-उपविशेत् । ईदृशेऽप्यासने साधुः किमवस्था सस्तिप्ठेदित्याह-'अप्पुट्ठाई' इति अल्पोत्थायी-कार्य सत्यपि ईपदुत्तिष्ठतीत्येवशीला, एककार्येणोत्थितः सन् नहुकार्यसंपादक इत्यर्थः । अत-एव-कीदृश. सनित्याह
अव शिष्य के लिये आसन की विधि कहते है-'आसणे'-इत्यादि।
अन्वयार्थ-शिष्य (अणुच्चे-अनुच्चे) द्रव्यकी अपेक्षा गुरुमहाराज के आसनसे नीचा भावकी अपेक्षा अल्पमूल्यवाला (अकुए-अकुचे) तथा चटचट इत्यादि शब्द से रहित, अथवा हिलनेवाला नहीं ऐसा जो (थिरे-स्थिरे) स्थिर-चारो पाये जिसके समान हों ऐसे (आसणे-आसने ) आसन -- पीठ फलक पाट पाटले आदि, उन पर वर्षाकाल में (उवचिद्विज्जा-उपतिष्टेत् ) बैठे। शिष्य जिस आसन पर बैठे वह गुरु के आसन की अपेक्षा नीचा होना चाहिये । तथा अल्प मूल्यवाला एव हिलने डुलने वाला नहीं होना चाहिये । शिष्य अपने आसन पर जम कर बैठे, कारण विना न उठे, यही बात (अप्पुट्ठाईअल्पोत्यायी) इस पद द्वारा प्रदर्शित की गई है । उठने का काम यदि
वे शिष्य भाटे मासननी विधि ४९ छ, आसणे-त्याह
मन्वयार्थ-शिष्य अणुच्चे-अनुन्चे द्रव्यनी अपेक्षा सुरुभडाना सासन्थी नीया, मापनी अपेक्षा २५भुट्याणा, अकुए-अकुचे तथा यटयट त्या ७४थीडित अथवा सपा नडी सवार थिरे-स्थिरे स्थि२-यारे पाया नामे सरमा डाय तवा, आसणे-आसने मासन-पी8 ५८४ पाट पाटमा महिना ७५२ मा उवचिट्ठिज्जा-उपतिष्ठेत् मेसे शिष्य ने આસન ઉપર બેસે તે ગુરુના આસનથી નીચુ હોવુ જોઈએ, તથા હલે ચલે નહીં તેવું હોવું જોઈએ શિષ્ય પિતાના આસન ઉપર સ્થિર થઈને બેસે, કારણ पान, अप्पुट्ठाई-अल्पोत्थाई 20 पात २ ५६ वा। महर्शित ४२वामा