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________________ - - - प्रियदर्शिनी टीका गा २८ शिष्यायशिक्षा २२१ छाया- अनुशासनमापाय, दुष्कृतस्य च नोदनम् । हित तत् मन्यत प्रातः, द्वेष्य भरति अमाधो. ॥ २८ ॥ टीका-'अणुसासण' इत्यादि माज्ञ प्रज्ञावान् मेधारी शिष्य', औपायम्--उपाय-गीतपरुपभापणरूपे भयम्, मृदुकठोरमापणसमन्वितम् अनुशासन-गुरो. शिक्षावाश्य, च-पुन दुप्कृतस्य अति चारस्य निवारणाय नोदन-प्रेरण, 'हा किमिदमकल्प बया कृतम्' इत्यादिरूपम् तद् वचन हिव-लोकद्वयरल्याणकारक, मन्यते । जसाधो अग्निीतशिष्यस्य तदेव वचन द्वेष्य-द्वेषजनक भनति। यथा--क्षुक्षेत्र दत्त जल मधुररसरूपेण परिणत भाति, निम्मतरुमले तु तदेव सफल कल्याण करनेवाली भी गुरुशिक्षा किस को किस रूप मे परिणन होनी है सो कहते है-'अणुमालग-त्यादि। ___ अन्वयार्थ-(पन्नो-प्रज.) बुद्धिमान मेधावी शिष्य (ओवाय-ओपाय) मृदु ण्व कठोर मायण से मुक्त (अनुमासण-अनुशासन) गुरु के शिक्षा स्वरूप वचनो को कि जो (दुक्कडस्त य चोयण-दुकृतस्य च नोदनम् ) अतिचार के निवारण के लिये प्रयुक्त किये गये ह-'यह तुमने नहीं करने योग्य काम क्यो कर दिया है' इत्यादिरूप रो जो कहे गये है (त रिय मन्नए-तत् हित मन्यते उसको अपना हितकारक मानता है। (असाहुणो-असाघो) परन्तु जो अविनीत शिप्य होता है वह उन्ही शिक्षावचनो को (वेसहवइ-देष्य भवति) अहितकारी मानता है। मेधावी शिप्य गुरु के मृदुकठोररूप वचनो को अपना हितकारक, एव असाधु अर्थात् अविनीत शिन्य उन्ही वचनो को दु.खदायक मानता है। સકલ કલ્યાણ કરવવાળી ગુરુ શિક્ષા કેને કયા રૂપમાં પરિણત થાય છે ते वाभा भाव अणुसासण त्या न्याय-पन्नो-प्रज्ञ भुद्धिमान भावी शिष्य ओवाय-औपाय भाग मा ४२ माथी युक्त अणुसासण-अनुशामन गुरुना शिक्षा स्१३५ पयनान २ दुकडस्स य चोयण-दुष्कृतस्य च नोदनम् मतियारना निवा२९ भाटे પ્રયુક્ત કરવામા આવેલ છે આ ન કરવા યોગ્ય કામ તમે શા માટે કર્યું ?” त्याहि ३५थी ४२वाय छ तेहिय मन्तए-तत् हित मन्यते सन्चाताना ति:२ मान छ असाहुणो-असाधो ५२ तु २ अविनीत शिराय छे ते मे शिक्षा વચનને પણ મવતિ અહિતકારી માને છે
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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