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उत्तराभ्ययन उक्त चान्यत्र-ससा सुया नुसा माया, एयाहि किन सलगे।
एगते नेर चिठेजा, अपही सजए सया ॥१॥ छाया-स्वसा सुता स्नुपा माता, एताभिरपि न सलपेत् ।
एकान्ते नेर तिष्ठेत, आत्मार्थी सयतः सदा॥ १ ।। इति ।। २६ ।। अब गिनीतशिष्यकर्तव्यमाहमलम-जं में बुद्धाऽणुससति, सीएण फरुसेण वा ।
मम लाभो ति पेहाए, पंयओ त" पडिस्सुणे ॥२७॥ छाया-यन्मा बुद्धा अनुशासति, शीतेन परुपेण वा ।
। मम लाभ इति प्रेक्षया, प्रयतस्तत् प्रतिशृणुयात् ॥ २७॥ टीका-'ज मे' इत्यादि।
चुदाः आचार्याः, यन्माम् शीतेन शीतलपचनेन मृदुरचनेनेत्यर्थः, वा अथवा परुषेण-कठोरखचनेन अनुशासति शिक्षयन्ति, इदमनुशासन मम लाभ'कामका-कि-जिस प्रकार मुर्गे के यच्चेको कुलल-बिलाडी से भय बना रहता है उसी तरह ब्रह्मचारी को भी स्त्री के शरीर से सदा भय रहा करता है। इसलिये चाहे अपनी सासारिक पहिन भी हो, चाहे पुत्री हो, वहू हो, माता भी हो, तो भी एकान्तमे ब्रह्मचारी को इनके साथ उठना बैठना 'नही चाहिये और न यातचीत ही करनी चाहिये ॥ २६॥
अब विनीत शिष्य का कर्तव्य करते है-'जमे' इत्यादि। ___ अन्वयार्थ-विनीत शिष्य को इस प्रकार विचार करना चाहिये कि ( जमे बुद्धा-यन्मा वुद्धा) जो मुझे आचार्य महाराज (सीएण-शीतन) मीठे वचनों से, वा अथवा (फरसेण-परुषेण) कठोर वचनों से (अणुसासति-अनुशासति) अनुशासित करते हैं अर्थात् शिक्षा देते हैं साँ (मम लाभो-मम लाम ) यह मेरे लिये एक बडा भारी लाभ है, क्यों कि
આ માટે ભલે પિતાની સ સારીક બહેન હય, ચાહે પુત્રી હોય, વહુ હોય અથવા માતા હોય તો પણ એકાતમાં એમની સાથે બેસવું ઉઠવું કે વાતચિત ૫ણ બ્રહ્મચારીએ કરવી ન જોઈએ ૨૬
हवे विनीत शिनु तव्य ठ -जमे छत्यादि વિનીત શિષ્ય આ પ્રકારનો વિચાર કરે જોઈએ કે,
भ-पयार्थ-जमेसुद्धा-यन्मायुद्धा भने माया महारा, सीएण-शीतेन भी क्यनाथी, वा मय। फरुसेण-परुपेण ठार क्यनाथी, अनुसासति-अनुशास ति मनुशासित ४२ छ, अर्थात् शिक्षा मा छे ममलाभो ।