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________________ स्थविरावली छायाअर्थमहार्थखनि, सुश्रवणव्याख्यानकथननिर्वाणिनम् । प्रकृत्या मधुरवाणीकं, प्रयतः प्रणमामि दूष्यगणिनम् ॥ ४७ ॥ अर्थ:मैं अर्थ ( साधारण अर्थ ) महार्थ ( विशिष्ट अर्थ ) खनि (आकर-खान ) सुश्रवण ( अच्छा श्रवणवाला - कर्णप्रिय ) व्याख्यान और पृष्ट विषयों के कथन ( उत्तर देने ) में शान्तचित्त वाले और स्वभावसे मधुरभाषी श्री दृष्यनामकगणी (आचार्य) को यतनापूर्वक वन्दन करता हूँ ॥४७॥ मूलम् तवनियमसच्चसंजम-विणयज्जवखंतिमद्दवरयाण। सीलगुणगदियाणं, अणुओगजुगप्पहाणाणं ॥४८॥ सुकुमालकोमलतले, तेसिं पणमामि लक्खणपसत्थे। पाए पावयणीणं, पडिच्छयसयएहिं पणिवइए ॥४९॥ छायातपोनियमसत्यसंयम,-विनयार्जवक्षान्तिमार्दवरतानाम् । शीलगुणगर्वितानाम् , अनुयोगयुगप्रधानानाम् ॥४८॥ सुकुमारकोमलतलान्, तेषां प्रणमामि लक्षणप्रशस्तान् । पादान् प्रवचनिनां, प्रतीच्छकशतकैः प्रणिपतितान् ॥ ४९॥ अर्थःमैं तपस्या, नियम, सत्य, संयम, विनय, सरलता, क्षमा और कोमलता में रत ( संलग्न-लगे हुए ), शील (सदाचार ) रूप गुण से गर्वित-सम्पन्न, अनुयोग ( व्याख्यान) में : युगप्रधान (युगप्रधान-पदप्राप्त ) प्रशस्तप्रवचनसम्पन्न, (श्रीदृष्यगणी) के परम कोमलतलवाले, लक्षणों से प्रशस्त (सुलक्षण) और सैकडौं प्रती छको (सूत्र और सूत्रार्थों के ग्रहण करनेवाले शिष्यों) से प्रणिपतित (अभिवन्दित) चरणों को नमस्कार करता हूं ॥ ४८-४९ ॥
SR No.009350
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages940
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size58 MB
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