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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे બદ घराणाम्, “मिउविसय सुदुमलक्खणपसत्यविछिष्ण के सरपालिहाराणं' मृदुविशद सूक्ष्मलक्षण प्रशस्त विस्तीर्ण केसरपालिघराणाम्, तत्र - मृद्री विशदा उज्ज्वला यद्वा परस्परमसंमिलिता प्रतिरोमकूपमेकैकसंभवात् सूक्ष्मा - तन्वी लक्षणा प्रशस्ता या केसरपालि:स्कन्धकेशश्रेणिः तां धरन्ति ये ते तथा तेपासू, 'कलंतथा सगललाडवर भूसणाणं' ललन्त यास कललाटवरभूषणानाम्, तत्र ललन्तः - सुवद्धत्वेन शोभायुक्ता ये शासकाः दर्पणाकारा आभरणविशेषाः त एव ललाटे भूषणानि - श्राभरणविशेषा येषां ते तथा तेपाश्र्, “मुहमंडगोचूलग चामरथासग परिमंडियकडीणं सुखमण्डका चूलक सामरथासकपरिमण्डितकटीनाम्, तत्र मुखमण्डकं - मुखाभरणम् अवचूलकार प्रकस्वमानगुच्छाः चामराणि स्थासकाः- दर्पणाकार आभरणविशेषाः एते यथास्थाने नियोजिताः सन्ति येषां ते तथा, परिसुम सुजाय गिद्ध लोमच्छविहराणं' इनके शरीर पर के जो रोम हैं वे तनु सूक्ष्म बहुत ही पतले हैं, सुजात-दोपविवर्जित, हैं, एवं स्निग्ध हैं, ऐसे रोमों की छवि को ये धारण किये हुए हैं, 'मिउविजय सुहुमलक्खण पसस्थ विछिष्ण केसर पालिहराण' मृदु, विशद, सूक्ष्म, लक्षणों से प्रशस्त, एवं विस्तीर्ण ऐसी केशरपाली - गर्दन के ऊपर जो बाल हैं वे मृदु-चिकने हैं विशद - उज्ज्वल साफ सुथरे हैं, या परस्पर में असंगलित हैं, क्यों कि एक एक रोमकूप में एक २ ही बाल है, तथा ये पतले हैं-मोटे नहीं हैं, एवं बालों के लक्षणों से युक्त हैं 'ललंत थासगललाडवर भूसणाणं' इनकेललाट-भाल पर जो दर्पण के आकार अभूषण पहिराये गये हैं वे सुबद्ध होने के कारण बहुत ही बडी शोभा से युक्त हैं, 'मुह मंडगओचूलगचामरथासग परिमंडियकडीणं' मुख मंडक - मुखाभरण - अवचूलक, लम्बे २ गुच्छे चामर, स्थासकदर्पणाकारवाले आभरण विशेष ये सब उनके ऊपर यथास्थान पर सजे हुए हैं एवं इनका कटि પાતળાં છે, સુજાત દોષ વિવર્જિત છે. અને સુંવાળા છે, આના રૂંવાડાની છમીને તેઓએ धार हरेली छे. 'मिउविसय सुहुमलक्खणपसत्थवि छिष्णकेसरपालिहराणं' भृङ, विशह, સૂક્ષ્મ, લક્ષણેાથી પ્રશસ્ત અને વિસ્તીર્ણ એવી કેશરવાલી–ગનની આલ-ને તેઓએ ધારણ કરેલી છે અર્થાત્ એમની ગનની ઉપર જે વાળ છે તે મૃદુ ચિકણાં છે, વિશદ-ઉજજવળ સાસુથરા અથવા પરસ્પરમાં અસવલિત છે કારણ કે એક રામકૂપમાં એક-એક तथा ते पातजा छे-लडा नथी मने वाजना सक्षोथी युक्त छे. 'ललंत थासगळलाडवरभूसणाणं' शेभना ससार-लास पर ने हयगुना भरना आभूषण पहेराववामां भाव्या छे ते सुद्ध हवाना भरणे धाशु भेटी शोभावाजा छे, 'मुह मंडगओ घुलगचामरथा सगपरिमंडियकडीणं' भुणभडे-भुणाभरणु-अवसः सांगा सांगा ગુચ્છા ચામર, સ્થામક દપ ણાકારવાળા આારણુ વિશેષ એ બધાં તેમની ઉપર યથાસ્થાને રાખેલા હું અને એમના કટિપ્રદેશ વળો અન્ય પ્રકારના આભરણાથી સુરોાભિત મની રહે છે.
SR No.009347
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages569
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size46 MB
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