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________________ ४६ मम्मूखीपप्रतिसूत्र मुनमितं सम्यगधोमुखीकृतं सुजातं शोभनतया जातम्, आस्फोटितं भूमौ ठाडि लागुलं पुच्छ यैस्ते तथा तेपाम् । तथा-'बरामयणखाणं' वज्रमयनखानाम्-वज्रतुल्यनखानाम् 'वईरामयदाढाण' वज्रमयदंष्ट्राणां वज्रसदृश दंष्ट्रावताम्, 'वइरामय दंताणं' वज्रमय दन्तानाम् 'तवणिज्जजीहाण' तपनीय जिह्वानाम् सुवर्णसदृश पीत जिहानाम्, 'तवणिज तालुयाण' तपनीयतालुकानाम्, 'तवणिज्जजोत्तग मुजोइयाण' तपनीय योत्रक मुयोजितानाम्, 'कामगमाण' कामगमानाम्, तत्र कामः स्वेच्छा तेन गमो गमनं येपा ते यथा तादृशानाम्, 'पीइगमाण' प्रीतिगमानाम्, तत्र प्रीतिचित्तस्योल्लास विशेषस्तेन गमो गमनं येपां, ते तथा तथावित्रानाम् ‘मणोगमाणं' मनोगमानाम्, तत्र मनोवद् गमो गमनं वेगवद् येपां ते तथा तादृशानाम् 'मणोरमाणं मनोरमाणां मनोहराणाम् 'अभियगईणं अमितगतीनाम् अत्यधिक लगती है ये कभी २ उस पूंछ को नीचे भी झुका लेते हैं और वह इतनी अधिक नीचे झुक जाती है कि उससे पृथ्वी का भी स्पर्श होने लग जाता है। 'वइरामय णखाणं' इनके नख ऐसे कठोर होते हैं कि मानों ये बज्र के ही बने हुए हैं वहरा मयदाढाणं' इनकी दाढ़ें भी ऐसी मजबूत होती हैं कि मानों ये भी वन की ही बनी हुई हैं। 'चहरामयदंताणं दांत भी इनके इतने अधिक कठोरता लिये हुए होते हैं कि मानों ये वज्र के ही बने हों। तवणिज जीहाणं इनकी जिहवा सुवर्ण के जैसी पीतवर्णवाली होती है 'तपणिज्जतालुयाण तालु भी इनका तप नीय सुवर्ण के जैसा लाल होता है 'तवणिजजोत्तगसुजोइयाणं' सुवर्ण योत्रक मुखरस्सी-जोतों से इनका मुख युक्त रहता है 'कामगमाण' इनका गमन इच्छा नुसार होता है 'पीइ गमाण' चित्त के उल्लास के अनुसार इनकी चाल होती है 'मणोगमाणं' मन की गति के समान इनकी गति होती है 'मणोरमाणं ये बडे ही सुन्दर होते हैं 'अमियगईणं' इनकी गति का कोई पार नहीं पा सकता है છે પરંતુ તેને અગ્રભાગ નીચેની તરફ વળેલો રહે છે આથી તે જોવામાં ઘણું સારી સહામણી લાગે છે. તેઓ કદી કદી તે છડીને નીચે પણ નમાવી લે છે અને તે એટલી पधारे नाय 4जी नय छ ते पृथ्वी पर २५श ४२ छ. 'वइरामय णखाणं' मेमना नम मे ४४ .य छ , ong ते १० न. मन्या जाय ! 'वइरामयदंताणं' did પણ તેમને એટલા અધિક કઠોરતાવાળા હોય છે કે જાણે વના ન બન્યા હોય 'तवणिज्जजीहाणं' मेमनी म सुवर्ण पीपीपा गवाणी डाय छे. 'तवणिज्जतालुयाणं' ताण ५ मेमनु तपास सुवर्ण ना रे मा जाय छे. 'तवणिजजोत्तगसुजोइयाणं' सुपनी यात्र४-भुम२२सी-मथा समर्नु भुभ यु डाय छे. 'कामगमाणं' भर्नु समान ४२छानुसार याय छ, 'पीइगमाणं' थित्तन BADस मनुसार अभनी या डाय छ 'मणोरमाणं' भननी गतिनी रेभ अभनी गति डाय छे. 'मणोगमाणं' तो पy on सुन्दर डाय छ, 'अमियगइणं' भनी गतिन. ४ पा२ पाभी न २ का सत्या५६
SR No.009347
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages569
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size46 MB
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