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________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. २० संवत्सरादीनां आदीत्वनिरूपणम् ३१९ करणस्यैव संभवादिति । 'अभिजियाइया णक्खत्ता' अभिजिदादिकानि नक्षत्राणि, तत्राभिजिन्नक्षत्रमादि येषां तानि अभिजिदादिका नि, अभिजिन्नक्षत्रमारभ्य नक्षत्राणां क्रमेण युगे प्रवर्तमानत्वात्, तथाहि उत्तराषाढा नक्षत्रान्तिम समय पाश्चात्ये युगस्यान्तः तदनन्तरं पुन: नवीन युगस्य प्रथमनक्षत्रमभिजिदेवेति । 'पन्नत्ता समणा उसो' प्रज्ञप्तानि-कथितानि हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! इति भगवत उत्तरम् । अनने सम्बोधनकथनम्, शिष्यस्य पुनरपि प्रश्नविषयक प्रयत्न प्रदीपनार्थम् . अतएव हृष्टमनाः गौतमो युगे युगे अयनादि प्रमाणे प्रष्टुमाह-पंचसंवच्छरिए णं भंते ! जुगे' पञ्चसम्वत्सरिके खलु भदन्त ! युगे 'केवइया अयणा पन्नत्ता' झियनि-कियरसंख्यकानि भयनानि प्रज्ञप्तानि, तत्र एञ्च संवत्सराः सूर्यसंबन्धिनो मानं प्रमाणं यस्य तत्पश्चसंवत्सरिक युगम् तस्मिन् युगे हे भदन्न ! कति कियत्संख्यकानि वाइया करणा' करणों मे सबसे प्रथम करण बालवहीं होता है क्योंकि कृष्णपक्ष के प्रतिपदा के दिन इस मुहूर्त का ही सद्भाव होना कहा गया है 'अभिजिया. इयाणक्खत्ता' नक्षत्रों में सर्व प्रथम नक्षत्र अभिजितू होता है क्योंकि युग में अभिजित् नक्षत्र को लेकर ही शेष नक्षत्रों की क्रम क्रम से प्रवृत्ति होती है। इसका स्पष्टीकरण ऐला है-उत्तराषाढा नक्षत्र के अन्तिम समय के पाश्चात्य समय में ही युग का अन्त होता है फिर उसके अनन्तर समय में ही पुनः नवीन युग का जो अभिजित् नक्षत्र है वही होताहै। 'पन्नत्ता समणाउसो' इस प्रकार से संवत्सरादि को में से कौन संवत्सरादिकों मेंसे कौन संवत्सरादिक आदिवाले हैं हे श्रमण आयुष्मन् गौतन ! हमने तुम्हें बनाया है। ऐसा यह प्रभु की ओर से उत्तर वाक्यका कथन है । ___अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'पंच संवच्छरिए णं भंते ! जुगे केवइया अथणा पण्णता' हे भदन्त ! पांच प्रकार के जो संवत्सर कहे गये माहिमा उहाय छ ।२ प्रात:भा २ मुतनी ४ प्रवृत्ति थाय छे. 'बाल वाइया करणा' ४२ मां सब प्रथम ४२४ मा डाय छे. ४२ १०५ पक्षना ५४पानास मा मुइतना र समाव पार्नु उपाभो मायुं छे. 'अभिजियाइयाणक्खत्ता' नक्षत्रामi स प्रथम नक्षत्र मामात् डाय छे. १२ए। युगमा समिति નક્ષત્રને લઈને જ શેષ નક્ષત્રની કમે કેમે પ્રવૃત્તિ થાય છે. આનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે–ઉત્તરાષાઢા નક્ષત્રમાં અન્તિમ સમયની બાદના સમયમાં જ યુગને અન્ત થાય છે. પછી તેની અનન્તર સમયમાં જ પુનઃ નવીન યુગનું જે અભિજિત નક્ષત્ર છે તે જ હોય छ ‘पन्नत्ता समणाउसो' २॥शत सपसमियी ४या सत्समांथी यांसवस રાદિક આદિવાળા છે. હું શ્રવણ આયુષ્યન્ ! ગૌતમ અમે તમને તે બનાવ્યા છે. એવું આ પ્રભુની તરફથી ઉત્તર વાકયનું કથન છે. व गौतभाभी प्रभुन से पूछे थे-पंच संवच्छरिए णं भंते ! जुगे केवइया अयणा पण्णत्ता' महत ! ५iय २ रे संवत्सर डपामां माया छ त ते सवत्सर
SR No.009347
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages569
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size46 MB
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